________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 75.76 77. से अबुज्झमाणे हतोवहते जाती-मरणं अणुपरियट्टमाणे / जीवियं पुढो पियं इहमेगेसि माणवाणं खेत्त-वत्थु ममायमाणाणं / आरत्तं विरत्तं मणिकुडलं सह हिरण्णण इत्थियाओ परिगिज्य तत्थेव रत्ता। . ण एत्थ तवो वा दमो वा णियमो वा दिस्सति / संपुण्णं बाले जीविउकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासमुवेति। .. 78. इणमेव णावखंति जे जणा धुवचारिणो। जाती-मरणं परिण्णाय चरे संकमणे दढे // 1 // णस्थि कालस्स णागमो। सम्वे पाणा पिआउया सुहसाता दुक्खपडिकूला अप्पियवधा पियजीविणो जीवितुकामा / सव्वेसि जीवितं पियं। 76. प्रत्येक जीव को सुख प्रिय है, यह तू देख, इस पर सूक्ष्मतापूर्वक विचार कर। जो समित ( सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न ) है वह इस (जीवों के इष्ट-अनिष्ट कर्म विपाक) को देखता है / जैसे अन्धापन, बहरापन, गूगापन, कानापन, लूला-लंगड़ापन, कुबड़ापन बौनापन कालापन, चितकबरापन (कुष्ट आदि चर्मरोग) आदि की प्राप्ति अपने प्रमाद के कारण होती है। वह अपने प्रमाद (कर्म) के कारण ही नानाप्रकार की योनियों में जाता है और विविध प्रकार के प्राघातों-दुःखों/बेदनाओं का अनुभव करता है / 77. वह प्रमादी पुरुष कर्म-सिद्धान्त को नहीं समझता हुआ शारीरिक दुःखों से हत तथा मानसिक पीड़ाओं से उपहत-पुन:पुनः पीड़ित होता हुआ जन्म-मरण के चक्र में बार-बार भटकता है। जो मनुष्य, क्षेत्र-खुली भूमि तथा-वास्तु-भवन-मकान आदि में ममत्व रखता है, उनको यह असंयत जीवन ही प्रिय लगता है। वे रंग-विरंगे मणि, कुण्डल, हिरण्यस्वर्ण, और उनके साथ स्त्रियों का परिग्रह कर उनमें अनुरक्त रहते हैं। परिग्रही पुरुष में न तप होता है, न दम-इन्द्रिय-निग्रह (शान्ति) होता है और न नियम होता है। __ वह अज्ञानी, ऐश्वर्यपूर्ण सम्पन्न जीवन जीने की कामना करता रहता है। . बार-बार सुख प्राप्ति की अभिलाषा करता रहता है। किन्तु सुखों की अ-प्राप्ति व कामना की व्यथा से पीड़ित हुअा वह मूढ़ विपर्यास--(सुख के बदले दुःख) को ही प्राप्त होता है। जो पुरुष ध्र वचारी-अर्थात् शाश्वत सुख-केन्द्र मोक्ष की ओर गतिशील होते हैं, वे ऐसा विपर्यासपूर्ण जीवन नहीं चाहते। वे जन्म-मरण के. चक्र को जानकर दृढ़तापूर्वक मोक्ष के पथ पर बढ़ते रहें / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org