________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र : 79 ततो से एगदा विप्परिसिठं संभूतं महोवकरणं भवति / तं पि से एगदा दायादा विभयंति, अदत्तहारो वा सेअवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से डज्मति / इति से परस्सऽटाए कूराई कम्माई बाले पकुब्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विष्परियासमुवेति / मुणिणा हु एतं पवेदितं। अणोहंतरा एते, णो य ओहं तरित्तए। अतीरंगमा एते, णो य तीरं गमित्तए / अपारंगमा एते, णो य पारं गमित्तए। आयाणिज्जं च आदाय तम्मि ठाणे ण चिट्ठति / वितहं पप्प खेत्तण्णे तम्मि ठाणम्मि चिट्ठति // 2 // 79. वह परिग्रह में आसक्त हुआ मनुष्य, द्विपद ( मनुष्य-कर्मचारी) और चतुष्पद (पशु आदि) का परिग्रह करके उनका उपयोग करता है। उनका कार्य में नियुक्त करता है। फिर धन का संग्रह-संचय करता है / अपने, दूसरों के और दोनों के सम्मिलित प्रयत्नों से (अथवा अपनी पूजित पूजी, दूसरों का श्रम तथा बुद्धि-तीनों के सहयोग से) उसके पास अल्प या बहुत मात्रा में धनसंग्रह हो जाता है। __ वह उस अर्थ में गद्ध-पासक्त हो जाता है और भोग के लिए उसका संरक्षण करता है / पश्चात् वह विविध प्रकार से भोगोपभोग करने के बाद बची हुई विपूल अर्थ-सम्पदा से महान् उपकरण वाला बन जाता है / एक समय ऐसा आता है, जब उस सम्पत्ति में से दायाद-बेटे-पोते हिस्सा बंटा लेते हैं, चोर चुरा लेते हैं, राजा उसे छीन लेते हैं। या वह नष्ट-विनष्ट हो जाती हैं / या कभी गृह-दाह के साथ जलकर समाप्त हो जाती है / इस प्रकार वह अज्ञानी पुरुष, दूसरों के लिए क्रूर कर्म करता हुआ अपने लिए दुःख उत्पन्न करता है, फिर उस दुःख से त्रस्त हो वह सुख की खोज करता है, पर अन्त में उसके हाथ दुःख ही लगता है / इस प्रकार वह मूढ विपर्यास को प्राप्त होता है। भगवान् ने यह बताया है- (जो क्रूर कर्म करता है, वह मूढ होता है। मूढ मनुष्य सुख की खोज में बार-बार दुःख प्राप्त करता है) ये मूढ मनुष्य अनोघंतर हैं, अर्थात् संसार-प्रवाह को तैरने में समर्थ नहीं होते / (वे प्रव्रज्या लेने में असमर्थ रहते हैं) वे अतीरंगम हैं, तीर-किनारे तक पहुंचने में (मोह कर्म का क्षय करने में) समर्थ नहीं होते। वे अपारंगम हैं, पार-(संसार के उस पार-निर्वाण तक) पहुँचने में समर्थ नहीं होते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org