________________ आधारांग सूत्र–प्रथम श्रुतस्कन्ध वह (मूढ) आदानीय-सत्यमार्ग (संयम-पथ) को प्राप्त करके भी उस स्थान में स्थित नहीं हो पाता / अपनी मूढता के कारण वह असन्मार्ग को प्राप्त कर उसी में ठहर जाता है। .. विवेचन--इस सूत्र में परिग्रह-मूढ़ मनुष्य की दशा का चित्रण है। वह सुख की इच्छा से धन का संग्रह करता है किन्तु धन से कभी सुख नहीं मिलता / अन्त में उसके हाथ दुःख, शोक, चिन्ता और क्लेश ही लगता है। परिग्रहमूढ अनोपंतर है--संसार त्याग कर दीक्षा नहीं ले सकता / अगर परिग्रहासक्ति कुछ छूटने पर दीक्षा ले भी ले तो जब तक उस बंधन से पूर्णतया मुक्त नहीं होता, वह केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, और न संसार का पार--निर्वाण प्राप्त कर सकता है। चूर्णिकार ने 'आदानीय' का अर्थ-पंचविहो आयारो-पांच प्रकार का प्राचार अर्थ किया है कि वह परिग्रही मनुष्य उस आचार में स्थित नहीं हो सकता।' चूर्णिकार ने इस गाथा (2) को एक अन्य प्रकार से भी उद्धृत किया है, उससे एक अन्य अर्थ ध्वनित होता है, अतः यहां वह गाथा भी उपयोगी होगी आदाणियस्स आणाए तम्मि ठाणे ण चितुइ। वितह पप्पऽखेत्तणे तम्मि ठाणम्मि चिट्ठइ // -आदानीय अर्थात् ग्रहण करने योग्य संयम मार्ग में जो प्रवृत्त है, वह उस स्थान(मूल ठाणे-संसार) में नहीं ठहरता / जो अखेत्तग्णे-(प्रक्षेत्रज्ञ) अज्ञानी है, मूढ है, वह असत्य. मार्ग का अवलम्बन कर उस स्थान (संसार) में ठहरता है / / 80. उद्देसो पासगस्स पत्थि। बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमितदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्ट अणुपरियदृति त्ति बेमि। // तइओ उद्देसओ समतो॥ 80. जो द्रष्टा है, (सत्यदर्शी है) उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं होती। अज्ञानी पुरुष, जो स्नेह के बंधन में बंधा है, काम-सेवन में अनुरक्त है, वह कभी दुःख का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखी होकर दुःखों के प्रावर्त में-चक्र में बार-बार भटकता रहता है। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-यहाँ पश्यक-शब्द द्रष्टा या विवेकी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है / टीकाकार ने वैकल्पिक अर्थ यों किया है--जो पश्यक स्वयं कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक रखता है, उसे अन्य के 1. प्राचा० (जम्बूविजय जी) टिप्पण पृष्ठ 23 2. अखेतण्णो अपंडितो से तेहि चेत्र संसारहाणे चिट्ठति-णि (वहीं पृष्ठ 23) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org