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________________ द्वितीय अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 80.82 उपदेश की आवश्यकता नहीं है। अथवा पश्यक--सर्वज्ञ हैं, उन्हें किसी भी उद्देस-नारक प्रादि तथा उच्च-नीच गोत्र आदि के व्यपदेश-संज्ञा की अपेक्षा नहीं रहती।। जिहे-के भी दो अर्थ है-(१) स्नेही अथवा रागी,, (2) णिद्ध (निहत) कषाय, कर्म परीषह आदि से बंधा या त्रस्त हुआ अज्ञानी जीव / ' // तृतीय उद्देशा समाप्त / / चउत्यो उद्देसओ बर्थ उद्देशक काम-भोग-जन्य पीड़ा 81. ततो से एगया रोगसमुप्पाया समुष्पज्जति / जेहिं वा सद्धि संवसति ते व णे एगया णियगा पुब्धि पस्वियंति, सो वा ते णियए पच्छा परिवएज्जा। णालं ते तव ताणाए वा सरगाए वा, तुम पि तेसि णालं ताणाए वा सरणाए वा / 82. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं / भोगामेव अणुसोयंति, इहमेगेसि माणवाणं तिविहेण जा वि से तत्थ मत्ता भवति अप्पर वा बहुया वा / से तत्थ गढिते बिट्ठति भोयणाए / ततो से एगया विपरिसिठं संभूतं महोवकरणं भवति तं पि से एगया दायादा विभयंति अदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलु पंति, णस्सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से उज्मति / इति से परस्स अट्ठाए कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विपरियासमुवेति। 81. तब कभी एक समय ऐसा आता है, जब उस अर्थ-संग्रही मनुष्य के शरीर में (भोग-काल में) अनेक प्रकार के रोग-उत्पात (पीड़ाएँ) उत्पन्न हो जाते हैं। __ वह जिनके साथ रहता है, वे ही स्व-जन एकंदा (रोगग्रस्त होने पर) उसका तिरस्कार व निदा करने लगते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार व निंदा करने लगता है। हे पुरुष ! स्वजनादि तुझे त्राण देने में, शरण देने में समर्थ नहीं है। तू भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं है / 82. दुःख और सुख–प्रत्येक प्रात्मा का अपना-अपना है, यह जानकर (इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे)। 2. अदत्ताहारो-पाठान्तर हैं। / 1. प्राचा० टीका पत्रांक 113/1 3. कराणि कम्माणि-पाठान्तर है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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