________________ भाचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध कुछ मनुष्य, जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं कर पाते, वे बार-बार भोग के विषय में ही (ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की तरह) सोचते रहते हैं / यहाँ पर कुछ मनुष्यों को (जो विषयों की चिंता करते हैं) (तीन प्रकार से)अपने, दूसरों के अथवा दोनों के सम्मिलित प्रयत्न से अल्प या बहुत अर्थ-मात्रा (धनसंपदा) हो जाती है / वह फिर उस अर्थ-नात्रा में आसक्त होता है / भोग के लिए उसकी रक्षा करता है / भोग के बाद बची हुई विपुल संपत्ति के कारण वह महान् वैभव वाला बन जाता है। फिर जोवन में कभी ऐसा समय प्राता है, जब दायाद हिस्सा बँटाते हैं, चोर उसे चुरा लेते हैं, राजा उसे छीन लेते हैं, वह अन्य प्रकार (दुर्व्यसन आदि या आतंक-प्रयोग) से नष्ट-विनष्ट हो जाती है। गृह-दाह आदि से जलकर भस्म हो जाती है / अज्ञानी मनुष्य इस प्रकार दूसरों के लिए अनेक क्रूर कर्म करता हुआ (दुःख के हेतु का निर्माण करता है) फिर दुःखोदय होने पर वह मूढ बनकर विपर्यास भाव को प्राप्त होता है / आसक्ति ही शल्य है 83. आसं च छंदं च विगिच धीरे / तुमं चेव तं सल्लमाहट्ट / जेण सिया तेण णो सिया / इणमेव णायबुझंति जे जणा मोहपाउडा / 84. थोभि लोए पध्वहिते / ते भो ! वदंति एयाई आयतणाई। से दुक्खाए मोहाए माराए णरगाए नरगतिरिक्खाए / सततं मूढे धम्मं णाभिजाणति / 83. हे धीर पुरुष ! तू आशा और स्वच्छन्दता (स्वेच्छाचारिता)-मनमानी करने का त्याग करदे 1 उस भोगेच्छा रूप शल्य का सृजन तूने स्वयं ही किया है / जिस भोग-सामग्री से तुझे सुख होता है उससे सुख नहीं भी होता है / (भोग के बाद दुःख है)। जो मनुष्य मोह की सघनता से आवृत हैं, ढंके हैं, वे इस तथ्य को (उक्त प्राशय को-कि पौद्गलिक साधनों से कभी सुख मिलता है, कभी नहीं, वे क्षणभंगुर है, तथा वे ही शल्य-कांटा रूप है) नहीं जानते / 84. यह संसार स्त्रियों के द्वारा पराजित है (अथवा प्रव्यथित-पीड़ित है) हे पुरुष ! वे (स्त्रियों से पराजित जन) कहते हैं-ये स्त्रियाँ पायतन हैं (भोग की सामग्री हैं)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org