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________________ आनन्द ले सकते हैं और पद्य-रूप में भी। द्वितीय श्रुतस्कन्ध का अधिकांश भाग गद्य-रूप में है। पन्द्रहवें अध्ययन में अठारह पद्य प्राप्त होते हैं और सोलहवाँ अध्ययन पद्य-रूप में है। वर्तमान में प्राचारांग के दोनों श्रुतस्कन्धों में 146 पद्य उपलब्ध हैं। समवायांग और नन्दीसूत्र में जो पाचारांग का परिचय उपलब्ध है उसमें संख्येय वेष्टक और संख्येय श्लोक बताये हैं। ___डाक्टर शुनिंग ने प्राचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पद्यों की तुलना बौद्धत्रिपिटक-सुत्तनिपात के साथ की है। प्राचारांग के पद्य विविध छन्दों में उपलब्ध होते हैं। उसमें आर्या, जगती, त्रिष्टुभ, वैतालिय, अनुष्टुप श्लोक आदि विविध छन्द हैं / प्राचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम दो चूलिकाएं पूर्ण गद्य में हैं, तृतीय चूलिका में भगवान महावीर के दान-प्रसंग में छः आर्याओं का प्रयोग हुआ है, दीक्षा, शिविका में आसीन होकर प्रस्थान करने का वर्णन ग्यारह आर्याओं में हैं और जिस समय दीक्षा ग्रहण करते हैं उस समय जन-मानस का चित्रण भी दो प्रार्यात्रों में किया गया है। महाव्रतों की भावनाओं का वर्णन अनुष्टुप छन्दों में किया गया है। चतुर्थ चूलिका में जो पद्य हैं वे उपजाति प्रतीत होते हैं / सुत्तनिपात के प्रामगन्ध सुत्त में इस तरह के छन्द के प्रयोग दृग्गोचर होते हैं। आचारांग की भाषा __ सामान्य रूप से जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी है, यद्यपि जैन-परम्परा का ऐतिहासिक दृष्टि से चिन्तन करें तो सूर्य के प्रकाश की भांति स्पष्ट परिज्ञात होगा कि जैन-परम्परा ने भाषा पर इतना बल नहीं दिया है, उसका यह स्पष्ट मन्तव्य है कि मात्र भाषा ज्ञान से न तो मानव की चित्त-शुद्धि हो सकती है और न प्रात्म-विकास ही हो सकता है। चित्त-विशुद्धि का मूलकारण सदविचार है। भाषा विचारों का वाहन है, इसलिए जैन मनीषिगण संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और अन्य प्रान्तीय भाषाओं को अपनाते रहे हैं और उनमें विपुल-साहित्य का भी सृजन करते रहे हैं। यही कारण है आचारांगसूत्र की भाषा-शैली में भी परिवर्तन हुआ है / प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा बहुत ही गठी हुई सूत्रात्मक है तो द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भाषा कुछ शिथिल और व्यास-प्रधान है। यह स्पष्ट है कि भाषा के स्वरूप में परिवर्तन होता आया है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने प्रागमों की भाषा को आर्ष-प्राकृत कहा है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि वैदिक परम्परा में ऋषियों के शब्दों की सुरक्षा पर अधिक बल दिया किन्तु अर्थ की सुरक्षा पर उतना बल नहीं दिया गया है। जिसके फलस्वरूप वेदों के शब्द प्रायः सुरक्षित हैं किन्तु अर्थ की दृष्टि से विज्ञों में पर्याप्त मत-भेद है, वैदिक विज्ञों ने आज दिन तक शब्दों की सुरक्षा के लिए बहुत ही प्रयास किया है पर प्रर्थ की दृष्टि से कोई विशेष प्रयास नहीं हुआ। पर जैन-परम्परा ने शब्द की अपेक्षा अर्थ पर विशेष बल दिया है। इस कारण पाठभेद तो मिलते हैं, किन्तु अर्थभेद नहीं मिलता। प्राचारांगसूत्र में भी पाठ-भेद की एक लम्बी परम्परा है। विभिन्न प्रतियों में एक ही पाठ के विविध रूप मिलते हैं। विशेष जिज्ञासु शोधकर्ताओं को भूनि जम्बूविजयजी द्वारा सम्पादित आचारांगसूत्र के अवलोकन की मैं प्रेरणा करता है। प्रस्तुत सम्पादन में भी महत्त्वपूर्ण पाठान्तर और उनकी भिन्न अर्थवत्ता का सूचन कर नई दृष्टि दी है। विस्तार भय से उनकी चर्चा मैं यहां नहीं कर रहा हूँ, पाठक स्वयं इसे पढ़कर लाभ उठायें। हाँ एक बात और है कि वेद के शब्दों में मन्त्रों का प्रारोपण किया गया, जिससे वेद के मन्त्र सुरक्षित रह गये। पर जैनागमों में मन्त्र-शक्ति का प्रारोपण न होने से अर्थ सुरक्षित रहा है, पर शब्द नहीं।। जैन प्रागमों की भाषा में परिवर्तन का एक मुख्य कारण यह भी रहा है कि जैन पागम प्रारम्भ में लिखे नहीं गये थे। सुदीर्घकाल तक कण्ठस्थ करने की परम्परा रही / समय-समय पर द्वादश वर्षों के दुष्कालों ने प्रागम के बहुत अध्याय विस्मृत करा दिये / उनकी संयोजना के लिए अनेक वाचनाएं हुई। वीर निर्वाण सं.९८० में वल्लभीपूर नगर में देवाद्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में प्रागमों को लिपिबद्ध किया गया। उसके पश्चात् प्रागमों का निश्चित-रूप स्थिर हो गया। [33] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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