________________ प्राचारांग और प्राचार प्रकल्प ये दोनों एक नहीं है। क्योंकि प्राचारांग कहीं से भी नियंढ नहीं किया गया है, जबकि प्राचार-प्रकल्प प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु प्राचार-नामक बीसवें प्राभृत से उद्धृत है। यह बात नियुक्ति, चूणि और वृत्ति में स्पष्ट रूप से आयी है और यह बहुत ही स्पष्ट है कि साध्वाचार के लिए महान उपयोगी होने से चूला न होने पर भी चूला के रूप में उसे स्थान दिया गया है / समवायांग-सूत्र में "प्रायारस्स भगवो सचूलियागस्स" यह पाठ प्राता है / संभव है पाठ में चूलिका शब्द का प्रयोग होने के कारण सन्देह-प्रद स्थिति उत्पन्न हुई हो। जिससे पद संख्या और चूलिका के सम्बन्ध में प्राचारांग के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध के रूप में प्राचारांग से भिन्न प्राचारांग की चूलिकायें प्राचारान और प्राचारांग का परिशिष्ट मानने की नियुक्तिकार आदि को कल्पना करनी पड़ी हो। यह स्पष्ट है कि प्राचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा से द्वितीय श्रतस्कन्ध की भाषा बिलकुल पृथक् है, जिसके कारण चिन्तकों में यह धारणा बनी हुई है कि दोनों के रचयिता पृथक्-पृथक् व्यक्ति हैं। पर पागम के प्रति जो अत्यन्त निष्ठावान है, उनका अभिमत है कि दोनों श्रतस्कन्धों के रचयिता एक ही व्यक्ति हैं / प्रथम श्रुतस्कन्ध में तात्विक-विवेचन की प्रधानता होने से सूत्र-शैली में उसकी रचना की गयी है। जिसके कारण उसके भाव-भाषा और शैली में क्लिष्टता पायी है और द्वितीय श्रुत-स्कन्ध में साधना रहस्य को व्याख्यात्मक दष्टि से समझाया गया है, इसलिए उसकी शैली बहत ही सगम और सरल रखी गयी है। आधुनिक युग में कितने ही लेखक जब दार्शनिक पहलुओं पर चिन्तन करते हैं उस समय उनकी भाषा का स्तर अलग होता है और जब वे बाल-साहित्य का लेखन करते हैं, उस समय उनकी भाषा पृथक् होती है। उसमें वह लालित्य नहीं होता और न वह गम्भीरता ही होती है। यही बात प्रथम और द्वितीय श्रतस्कन्ध की भाषा के सम्बन्ध में समझना चाहिए। सभी मुर्धन्य मनीषियों ने इस सत्य को एक स्वर से स्वीकारा है कि प्राचारांग सर्वाधिक प्राचीन पागम है। उसमें जो प्राचार का विश्लेषण हुआ है वह अत्यधिक मौलिक है। रचना शैली आचारांग सूत्र में गद्य और पद्य दोनों ही शैली का सम्मिश्रण है / गद्य का प्रयोग विशेष रूप से हुआ है / दशवकालिक चूणि में' आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को गध के विभाग में रखा है। उसकी शैली चोर्ण पद मानी है। प्राचार्य हरिभद्र ने भी यही मत व्यक्त किया है। प्राचार्य भद्रबाहु ने चौर्ण पद की व्याख्या करते हुए लिखा है "जो अर्थबहुल, महार्थ हेतु-निपात और उपसर्ग से गम्भीर बहुपाद अव्यवच्छिन्न गम और नय से विशुद्ध होता है वह चौर्णपद है।"3 प्रस्तुत परिभाषा में बहुपाद शब्द पाया है जिसका अर्थ है पाद का प्रभाव ! जिसमें केवल गद्य ही होता है / पर चौर्ण वह है जिसमें गद्य के साथ बहुपाद (चरण) भी होते हैं। प्राचारांग सूत्र में गद्य के साथ पद्य भी है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में पाठवें अध्ययन का आठवां उद्देशक और नवम अध्ययन पद्य रूप में है। शेष छः अध्ययनों में पन्द्रह पद्य तो स्पष्ट रूप से प्राप्त होते हैं। टीकाकार ने जहाँ-जहाँ पर पद्य है, उसका सूचन किया है / केवल 78 और 79 उन दो श्लोकों का उल्लेख टीका में नहीं है / तथापि मुनि श्री जम्बूविजयजी ने उसे पद्य रूप में दिये हैं। 99 सूत्र पद्यात्मक है ऐसा सूचन अनेक स्थलों पर हुआ है। तथापि उसमें छन्द की दृष्टि से कुछ न्यूनता है। प्राचारांग में ऐसे अनेक स्थल पद्य रूप में प्रतीत होते हैं पर वे गद्य-रूप में ही प्राचारांग में व्यवहृत हैं। मनीषियों का मत है कि मूल में वे पद्य होंगे किन्तु आज बे पद्य रूप में व्यवहृत नहीं हैं / कितने ही वाक्यों को हम गद्य रूप में भी पढ़कर 1. दशवकालिक चूणि पृ० 78 / 2. दशवकालिक वृत्ति पृ० 88 / 3. दशवकालिक नियुक्ति गाथा, 174 / [32] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org