________________ 296 नाचारांग सूत्र-प्रपम श्रुतस्कन्ध ते अणवखमाणा, अणतिवातमाणा, अपरिग्गहमाणा, जो परिग्गहावंति सम्वावंति च गं लोगंसि, णिहाय दंड पाणेहिं पावं कम्मं अकुब्वमाणे एस महं मगंथे वियाहिते। भोए जुइमस्स खेतण्णे उववायं चयणं च पच्चा। 209. कुछ व्यक्ति मध्यम वय में भी संबोधि प्राप्त करके मुनिधर्म में दीक्षित होने के लिए उद्यत होते हैं। . तीर्थकर तथा श्रुतज्ञानी अादि पण्डितों के (हिताहित-विवेक-प्रेरित) वचन सुनकर, (हृदय में धारण करके) मेधावी (मर्यादा में स्थित) साधक (समता का आश्रय ले, क्योंकि) पार्यों (तीर्थकरों) ने समता में धर्म कहा है, अथवा तीर्थंकरों ने समभाव से (माध्यस्थ्य भाव से श्रुत चारित्र रूप) धर्म कहा है। .. वे काम भोगों की आकांक्षा न रखने वाले, प्राणियों के प्राणों का प्रतिपात और परिग्रह न रखते हुए. (निर्ग्रन्थ मुनि) समग्र लोक में अपरिग्रहवान् होते हैं / __ जो प्राणियों के लिए (परितापकर) दण्ड का त्याग करके (हिंसादि) पाप कर्म नहीं करता, उसे ही महान् अग्रन्थ (ग्रन्यविमुक्त निर्ग्रन्थ) कहा गया है। प्रोज (अद्वितीय) अर्थात राग-द्वष रहित द्य तिमान् (संयम या मोक्ष) का क्षेत्रज्ञ (ज्ञाता), उपपात (जन्म) और च्यवन (मरण) को जानकर (शरीर की क्षण-भंगुरता का चिन्तन करे। विवेचन-मुनि-दीक्षा ग्रहण की उत्तम अवस्था मनुष्य की तीन अवस्थाएँ मानी जाती हैं:-बाल्य, युवा और वृद्धत्व / यों तो प्रथम और अन्तिम अवस्था में भी दीक्षा ली जा सकती है, परन्तु मध्यम अवस्था मुनि-दीक्षा के लिए सर्वसामान्य मानी जाती है, क्योंकि इस वय में बुद्धि परिपक्व हो जाती है, भुक्तभोगी मनुष्य का भोग सम्बन्धी प्राकर्षण कम हो जाता है, अतः उसका वैराग्य-रंग पक्का हो जाता है। साथ ही वह स्वस्थ एवं सशक्त होने के कारण परीषहों और उपसर्गों का सहन, संयम के कष्ट, तपस्या की कठोरता प्रादि धर्मों का पालन भी सुखपूर्वक कर सकता है / उसका शास्त्रीय ज्ञान भी अनुभव से समृद्ध हो जाता है / इसलिए मुनि-धर्म के आचरण के लिए मध्यम अवस्था प्रायः प्रमुख मानी जाने से प्रस्तुत सूत्र में उसका उल्लेख किया गया है। गणधर भी प्रायः मध्यमवय में दीक्षित होते थे। भगवान महावीर भी प्रथमवय को पार करके दीक्षित हुए थे। बाल्यावस्था एवं वृद्धावस्था मुनिधर्म के निर्विघ्न आचरण के लिए इतनी उपयुक्त नहीं होती।' - संबुन्नमाणा---सम्बोधि प्राप्त करना मुनि-दीक्षा के पूर्व अनिवार्य है। सम्बोधि पाए बिना मुनिधर्म में दीक्षित होना खतरे से खाली नहीं है। साधक को तीन प्रकार से सम्बोधि प्राप्त होती है-स्वयंसम्बुद्ध हो, प्रत्येक बुद्ध हो अथवा बुद्ध-बोधित हो / प्रस्तुत सूत्र में बुद्ध-बुद्धबोधित (किसी प्रबुद्ध से बोध पाये हुए) साधक की अपेक्षा से कथन है / सोचावयं मेधावी पंडियाण निसामिया-इस पंक्ति का अर्थ चूर्णिकार ने कुछ भिन्न किया 1., प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 274 / . 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 274 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org