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________________ अष्टम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 209-210 257 है-पंडितों-गणधरों के द्वारा सूत्ररूप में निबद्ध मेधावियों तीर्थंकरों के; वचन सुनकर तथा हृदयं में धारण करके / मध्यमवय में प्रव्रजजित होते हैं।' .. ते अणवकखमाणा' का तात्पर्य है -- "वे जो गृहवास से मुनिधर्म में दीक्षित हुए हैं और मोक्ष की ओर जिन्होंने प्रस्थान किया है, काम भोगों की आकांक्षा नहीं रखते।" ___ अणतिवातेमाणा अपरिहमाणा- ये दो शब्द प्राणातिपात-विरमण तथा परिग्रह-विरमण महावत के द्योतक हैं / आदि और अन्त के महाव्रत का ग्रहण करने से मध्य के मृषावादविरमण, अदत्तादान-विरमण और मैथुन-विरमण महाव्रतों का ग्रहण हो जाता है। ऐसे महाव्रती अपने शरीर के प्रति भो ममत्वरहित होते हैं। इन्हें ही तीर्थकर गणधर आदि द्वारा महानिर्ग्रन्थ कहा गया है। अगंथे- जो बाह्य और प्राभ्यन्तर ग्रन्थों से विमुक्त हो गया है, वह अग्रन्थ है / अग्रन्थ या निर्ग्रन्थ का एक ही प्राशय है। उपवायं-चयन- उपपात (जन्म) और च्यवन(मरण) ये दोनों शब्द सामान्यतः देवताओं के सम्बन्ध में प्रयुक्त होते हैं / इससे यह तात्पर्य हो सकता है कि दिव्य शरीरधारी देवताओं का शरीर भी जन्म-मरण के कारण नाशमान है, तो फिर मनुष्यों के रक्त, मांस, मज्जा अादि अशुचि पदथों से बने शरीर की क्या विसात है ? इसी दृष्टि से चिन्तन करने पर इन पदों से शरीर की क्षण-भंगुरता का निदर्शन भी किया गया है कि 'शरीर' जन्म और मृत्यु के चक्र के बीच चल रहा है, यह क्षणभंगुर है, यह चिन्तन कर पाहार आदि के प्रति अनासक्ति रखे / ' अकारण-आहार-विमोक 210 आहारोवचया देहा परीसहपभंगुरा। पासहेगे सम्विविएहि परिगिलायमाहि / ओए क्यं दयति जे संणिधाणसत्थस्स खेत्तण्णे, से भिक्खू कालण्णे बालपणे मातण्णे खणvणे विणयपणे समयण्णे परिग्गह अममायमाणे कावेणट्ठाले अपडिण्णे दुहतो छत्ता णियाति / 210. शरीर पाहार से उपचित (संपुष्ट) होते हैं, परोषहों के आघात से भग्न हो जाते हैंकिन्तु तुम देखो, आहार के अभाव में कई एक साधक क्षधा से पीड़ित होकर सभी इन्द्रियों (की शक्ति) से ग्लान (क्षीण) हो जाते हैं / राग-द्वेष से रहित भिक्षु (क्षुधा-पिपासा प्रादि परीषहों के उत्पन्न होने पर भी) दया का पालन करता है। जो भिक्षु सन्निधान--(आहारादि के संचय) के शस्त्र (संयमघातक प्रवृत्ति) का मर्मज्ञ है; ( वह हिंसादि दोषयुक्त आहार का ग्रहण नहीं करता ) / वह भिक्षु कालज्ञ, बलज्ञ, मात्रज्ञ, क्षणज्ञ (अवसरज्ञाता), विनयज्ञ (भिक्षाचरी) के प्राचार का 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 274 / 2. आचारांग चूणि-मूलपाठ टिप्पण पृ. 47 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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