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________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध मर्मज्ञ), समयज्ञ (सिद्धान्त का ज्ञाता) होता है। वह परिग्रह पर ममत्व न करने वाला, उचित समय पर अनुष्ठान (कार्य) करने वाला, किसी प्रकार की मिथ्या आग्रह-युक्त प्रतिज्ञा से रहित एवं राग और द्वष के बन्धनों को दोनों ओर से छेदन करके निश्चिन्त होकर नियमित रूप से संयमी जीवन यापन करता है। .. विवेचन--सविविएहि परिगिलायमाहि-इस सूत्र में प्राहार करने का कारण स्पष्ट कर दिया गया है कि आहार करने से शरीर पुष्ट होता है, किन्तु शरीर को पुष्ट और सशक्त रखने के उद्देश्य हैं-संयमपालन करना और परीषहादि सहन करना / किन्तु जो कायर, क्लीब और भोगाकांक्षी होते हैं, शरीर से सम्पुष्ट और सशक्त होते हुए भी जो मन के दुर्बल होते हैं, उनके शरीर परीषहों के आ पड़ते ही वृक्ष की डाली की तरह कट कर टूट पड़ते हैं। सारा देह टूट जाता है, परीषहों के थपेड़ों से इतना ही नहीं, उनकी सभी इन्द्रियाँ मुआ जाती हैं / जैसे क्षुधा से पीड़ित होने पर आंखों के आगे अंधेरा छा जाता है, कानों से सुनना और नाक से सूंघना भी कम हो जाता है। तात्पर्य यह है कि पाहार केवल शरीर को पुष्ट करने के लिए ही नहीं, अपितु कर्ममुक्ति के लिए है, अतएव शास्त्रोक्त 6 कारण से इसे आहार देना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में एक निष्कर्ष स्पष्टत: प्रतिफलित होता है कि साधक को कारणवश पाहार ग्रहण करना चाहिए और अकारण आहार से विमुक्त भी हो जाना चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्र में साधु को 6 कारणों से आहार करने का विधान है छगई. अन्नयराए कारणम्मि समुट्ठिए / यण-वेयावच्चे इरियवाए. संजमाए। तह पाणवत्तियाए छठें पुण धम्मचिन्ताए / -~-~-साधु को इन छ: कारणों में से किसी कारण के समुपस्थित होने पर आहार करना चाहिए (1) क्षुधावेदनीय को शान्त करने के लिए / (2) साधुओं की सेवा करने के लिए। (3) ईर्यासमिति-पालन के लिए। (4) संयम-पालन के लिए। ."- (5) प्राणों की रक्षा के लिए। और (6) स्वाध्याय, धर्मध्यान आदि करने के लिए।' / इन कारणों के सिवाय केवल बल-वीर्यादि बढ़ाने के लिए आहार करना अकारण-दोष है / उत्तराध्ययन सूत्र में 6 कारणों में से किसी एक के समुपस्थित होने पर आहार-त्याग का भी विधान है 1. आचा० शीला० पत्रांक 274 / 2. (क) उत्तराध्ययन सूत्र अ० 26 गा० 34-33 (ख) धर्मसंग्रह अधि० 3 श्लो०-३ टीका (ग) पिण्डनियुक्ति प्रासषणाधिकार मा० 635 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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