________________ प्रस्तुत सम्पादन-विवेचन ___ आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का वर्तमान रूप परिपूर्ण है या खण्डित है-इस विषय में भी मतभेद है / डा० जैकोबी आदि अनुसंधाताओं का मत है कि प्राचारांग सूत्र का वर्तमान रूप अपरिपूर्ण है, खण्डित है / इसके वाक्य परस्पर सम्बन्धित नहीं हैं। क्रियापद आदि भी अपूर्ण हैं। इसलिए इसका अर्थबोध व व्याख्या अन्य प्रागमों से कठिन व दुरूह है। प्राचीन साहित्य में प्रागमव्याख्या की दो पद्धतियां वर्णित हैं---- 1. छिन्न-छेद-नयिक 2. अच्छिन्न-छेद-नयिक जो वाक्य, पद या श्लोक (गाथाएं) अपने आप में परिपूर्ण होते हैं, पूर्वापर अर्थ को योजना करने की जरूरत नहीं रहती, उनकी व्याख्या प्रथम पद्धति से की जाती है। जैसे दशवकालिक, उत्तराध्ययन आदि। दूसरी पद्धति के अनुसार वाक्य, या पद, गाथाओं को पूर्व या अग्रिम विषय संगति, सम्बन्ध, सन्दर्भ पादि का विचार करके उसकी व्याख्या की जाती है। आचारांग सूत्र की व्याख्या में द्वितीय पद्धति (अच्छिन्न-छेद-नयिक) का उपयोग किया जाता है। तभी इसमें एकरूपता, परिपूर्णता तथा प्रविसंवादिता का दर्शन हो सकता है। वर्तमान में उपलब्ध प्राचारांग (प्रथम श्रुतस्कंध) की सभी व्याख्याएं-नियुक्ति, चूर्णि, टीका, दीपिका व अवचूरि तथा हिन्दी विवेचन द्वितीय पद्धति का अनुसरण करती हैं। वर्तमान में प्राचारांग सूत्र पर जो व्याख्याएं उपलब्ध हैं, उनमें कुछ प्रमुख ये हैंनियुक्ति (प्राचार्य भद्रबाहु : समय-वि० 5-6 वीं शती) चूणि (जिनदासगणी महत्तर : समय-६-७ वीं शती) टीका (प्राचार्य शीलांक : समय-८ वीं शती) इस पर दो दीपिकाएं, अवचूरि व बालावबोध भी लिखा गया है, लेकिन हमने उसका उपयोग नहीं किया है। प्रमुख हिन्दी व्याख्याएं प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी महाराज / मूनि श्री सोभाग्यमलजी महाराज / मुनि श्री नथमलजी महाराज / यह तो स्पष्ट ही है कि प्राचारांग के गूढार्थ तथा महार्थ पदों का भाव समझने के लिए नियुक्ति आदि व्याख्याग्रन्थों का अनुशीलन अत्यन्त आवश्यक है। नियुक्तिकार ने जहां प्राचारांग के गढ़ार्थों का नयी-शैली से उद्घाटन किया है, जहाँ चूर्णिकार ने एक शब्द-शास्त्री की तरह उनके विभिन्न प्रयों की ओर संकेत किया है / टीका में नियुक्ति एवं चूर्णिगत अर्थों को ध्यान में रखकर एक-एक शब्द के विभिन्न सम्भावित अर्थों पर सूक्ष्म चिन्तन किया गया है। प्राचारांग के अनेक पद एवं शब्द ऐसे हैं जो थोड़े से अन्तर से, व्याकरण, सन्धि व लेखन के अल्पतम परिवर्तन से भिन्न अर्थ के द्योतक बन जाते हैं। जैसे समत्तदंसी-इसे अगर सम्मत्तदंसी मान लिया जाय तो इस शब्द के तीन भिन्न अर्थ हो जाते हैंसमत्तदंसी-समत्वदर्शी (समताशील) समत्तदंसी--समस्तदर्शी (केवलज्ञानी) सम्मत्तदंसी-सम्यक्त्वदर्शी (सम्यग्दृष्टि) प्रसंगानुसार तीनों ही अर्थ अलग-अलग ढंग से सार्थकता सिद्ध करते हैं। Jain Education International [ 14 ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org