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________________ स्थानकवासी परम्परा के विद्वान् प्राचार्य घासीलाल जी म. द्वारा पागमों पर रचित संस्कृत टीकाएँ भी अपने ढंग की हैं। टीका-साहित्य के पश्चात् अंग्रेजी, हिन्दी और गुजराती में प्राचाराङ्ग का अनुवाद साहित्य भी प्रकाशित हुआ / डाक्टर हर्मन जेकोबी ने प्राचाराङ्ग का अंग्रेजी में अनुवाद किया और उस पर महत्त्वपूर्ण भूमिका लिखी। मुनिश्री सन्तबालजी ने प्राचाराङ्गसूत्र का भावानुवाद प्रकाशित करवाया। श्रमणी विद्यापीठ घाटकोपर (बम्बई) से मूलपाठ के साथ गुजराती अनुवाद निकला है / इसके पूर्व रवजीभाई देवराज के और गोपालदास जीवाभाई पटेल के गुजराती में सुन्दर अनुवाद प्रकाशित हुए थे। हिन्दी में प्राचार्य अमोलकऋषि जी म. ने और पण्डितरत्न सौभाग्यमल जी म० ने, प्राचार्य सम्राट आत्माराम जी म० ने प्राचाराङ्ग पर हिन्दी में विवेचन लिखा, हिन्दी-विवेचन हृदयग्राही है / प्रबुद्ध पाठकों के लिए वह विवेचन उपयोगी है / हीराकुमारी जैन ने आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का बंगला में अनुवाद प्रकाशित करवाया तथा तेरापंथी समुदाय के पण्डित मुनि श्री नथमल जी ने मूल और अर्थ के साथ ही विशेष स्थलों पर टिप्पण लिखे हैं / इस प्रकार आधुनिक युग में अनुवाद के साथ आचाराङ्ग के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं। मूलपाठ के रूप में भी कुछ ग्रन्थ आये हैं। उनमें प्रागमप्रभावक मुनि श्री पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित मूलपाठ संशोधन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। स्थानकवासी समाज एक महान क्रान्तिकारी समाज है। समय-समय पर उसने जो क्रान्तिकारी चिन्तन पूर्वक कदम उठाये हैं उससे विज्ञगण मुग्ध होते रहे हैं। प्राचार्य अमोलकऋषिजी म०, पूज्य घासीलालजी म०, धर्मोपदेष्टा फूलचन्दजी म० के द्वारा आगम बत्तीसी का प्रकाशन हुआ है / उन प्रकाशनों में कहीं पर बहुत ही संक्षेप शैली अपनाई गई और कहीं पर अतिविस्तार हो गया। जिसके फलस्वरूप पागमों के आधुनिक संस्करण की माँग निरन्तर बनी रही। स्थानकवासी जैन कान्स ने भी अनेक बार योजनाएँ बनाई, पर वे योजनाएँ मूर्त रूप न ले सकी। सन् 1952 में स्थानकवासी समाज का एक संगठन बना और उसका नाम 'वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ' रखा गया, श्रमण-संघ के प्रत्येक सम्मेलन में पागम प्रकाशन के सम्बन्ध में प्रस्ताव-पारित होते रहे पर वे प्रस्ताव क्रियान्वित नहीं हो सके। परम पालाद का विषय है कि मेरे श्रद्धेय सद्गुरुवर्य अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म० के स्नेही साथी व सहपाठी श्री मधुकर मुनि जी म० ने प्रागम प्रकाशन की योजना को मूर्त रूप देने का दृढ़ संकल्प किया। उन्होंने कार्य में प्रगति लाने के लिए सम्पादक मण्डल का संयोजन किया। एक वर्ष तक पागम प्रकाशन व सम्यादन के सम्बन्ध में चिन्तन चलता रहा। इस बीच प्राचार्य प्रवर अानन्दऋषि जी म. ने प्रापश्री को यूवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया / आपके प्रधान सम्पादकत्व में प्राचारांगसूत्र का प्रकाशन हो रहा है। प्रस्तुत आगम का मूल पाठ प्राचीन प्रतियों के आधार से शुद्धतम रूप में देने का प्रयास किया गया है। मूलपाठ के साथ ही हिन्दी में भावानुवाद भी दिया गया है और गम्भीर रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए संक्षेप में विवेचन भी लिखा गया है / इस तरह प्रस्तुत प्रागम के अनुवाद व विवेचन की भाषा सरल, सरस और सुबोध है, शैली चित्ताकर्षक है / विवेचन में अनेक कठिन पारिभाषिक शब्दों का गहन अर्थ उद्घाटित किया गया है। प्रस्तुत प्रागम का सम्पादन सम्पादन-कला-मर्मज्ञ श्रीचन्द जी सुराना ने किया है। सुराना जी विलक्षण-प्रतिभा के धनी हैं / अाज तक उन्होंने पाँच दर्जन से भी अधिक पुस्तकों और ग्रन्थों का सम्पादन किया है / उनकी सम्पादन-कला अद्भुत और अनूठी है / युवाचार्यश्री के दिशा [ 41] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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