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________________ दिक्, सम्यक्त्व, योनि, कर्म, पृथ्वी, अप्-तेज-काय, लोकविजय, परिताप, विहार, रति-अरति, लोभ, जुगुप्सा, गोत्र, ज्ञाति, जातिस्मरण, एषणा, देशना, बन्ध, मोक्ष, परीषह, तत्त्वार्थ-श्रद्धा, जीव-रक्षा, अचेलकत्व, मरण-संलेखना, समनोजत्व, तीन याम, तीन वस्त्र, भगवान महावीर की दीक्षा, देवदूष्य आदि प्रमुख विषयों पर व्याख्या की गई है / चूर्णिकार ने भी नियुक्तिकार की तरह निक्षेप दृष्टि का उल्लेख करके शब्दों के अर्थ की उद्भावना की है। चूणिकार के सम्बन्ध में स्पष्ट परिचय प्राप्त नहीं होता है। यों प्रस्तुत चणि के रचयिता जिनदास गणी माने जाते हैं। कुछ ऐतिहासिक विज्ञों का मत है कि आचारांगण के रचयिता गोपालिक महत्तर के शिष्य होने चाहिये; यह तथ्य अभी अन्वेषणीय है।' आगमप्रभावक मुनि पुण्यविजय जी का मन्तव्य है कि चणि साहित्य में नागार्जुनीय वाचना के उल्लेख अनेक बार आये हैं / प्राचारांग चूणि में भी पन्द्रह बार उल्लेख हुआ है / चूणि में अत्यन्त ऐतिहासिक सामग्री का संकलन है / सूत्र (200) की चूणि में लोक-स्वरूप के सम्बन्ध में शून्यवादी बौद्धदर्शन के जानेमाने नागार्जुन के मत का भी निर्देश है / बौद्ध-सम्मत क्षणभंगुरता के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया है / सांख्य-दर्शन के सम्बन्ध में भी उल्लेख है / प्राचीन-युग में जैन परम्परा में यापनीय संघ था, उस यापनीय संघ के कुछ विचार श्वेताम्बर परम्परा से मिलते थे। प्राचारांग-चूणि में यापनीय संघ के सम्बन्ध में उल्लेख मिलता है / इस प्रकार प्राचारांग-चूणि का व्याख्या-साहित्य में अपना विशेष महत्त्व है। टीका चूणि के पश्चात् प्राचारांगसूत्र के व्याख्या-साहित्य में टीका साहित्य का स्थान है। चूणिसाहित्य में प्रधान रूप से प्राकृत भाषा का प्रयोग हुआ था और गौण रूप में संस्कृत भाषा का / पर टीकात्रों में संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ है, उन्होंने प्राचीन व्याख्या साहित्य के आलोक में ऐसे अनेक नये तथ्य प्रस्तुत किये हैं, जिन्हें पढ़कर पाठक अानन्द-विभोर हो जाता है / ऐतिहासिक दृष्टि से जिस समय टीकाएँ निर्माण की गई उस समय अन्य मतावलम्बी जैनाचार्यों को शास्त्रार्थ के लिये चनौतियां देते थे। जैनाचार्यों ने अकाट्य तर्कों से उनके मत का निरसन करने का प्रयत्न किया / आचारांग पर प्रथम संस्कृत टीकाकार प्राचार्य शीलांक हैं / उनका अपर नाम शीलाचार्य और तत्त्वादित्य भी मिलता है / उन्होंने प्रभावक-चरित के अनुसार नौ अंगों पर टीकाएँ लिखी थीं। पर इस समय प्राचारांग और सूत्रकृतांग इन दो आगमों पर ही उनकी टीकाएँ उपलब्ध हैं। शीलांक का समय विक्रम की नौवीं दशमीं शताब्दी है / आचारांग की टीका मूल और नियुक्ति पर अवलम्बित है। प्रत्येक विषय पर विस्तार से विवेचन किया है। पर शैली और भाषा सुबोध है, पूर्व के व्याख्या-साहित्य से यह अधिक विस्तृत है / वर्तमान में प्राचारांग को समझने के लिये यह टीका अत्यन्त उपयोगी है। इस वृत्ति के श्लोकों का परिमाण 12000 है / प्रस्तुत वृत्ति में नागार्जुन-वाचना का दस स्थानों पर उल्लेख हुआ है। यह सत्य है कि वृत्तिकार के सामने चूणि विद्यमान थी / इसलिये उन्होंने अपनी वृत्ति में उल्लेख किया है। प्राचार्य शीलांक के पश्चात् जिन प्राचार्यों ने प्राचारांग पर टीकाएँ लिखी हैं, उन सब का मुख्य आधार प्राचार्य शीलांक की वृत्ति रही है / अंचलगच्छ के मेरुतुंगसूरि के शिष्य माणक्यशेखर द्वारा रचित एक दीपिका प्राप्त होती है। जिनसमुद्रसूरि के शिष्यरल जिनहस की दीपिका भी मिलती है / हर्ष कल्लोल के शिष्य लक्ष्मी कल्लोल की अवचूरि और पावचन्द्रसूरि का बालावबोध उपलब्ध होता है / विस्तार भय से हम उनका यहाँ परिचय नहीं दे रहे हैं। 1. देखें; उत्तराध्ययनचूणि पृष्ठ-२८३ / 2. जैन प्रागमधर और प्राकृतवाङमय / -मुनि श्री हजारीमल स्मृतिग्रन्थ [40] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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