________________ इस समय दश प्रागमों पर नियुक्तियां प्राप्त होती हैं। वे इस प्रकार हैं..१-यावश्यक 6- दशाश्रुतस्कन्ध २–दशवकालिक ७-बृहत्कल्प 3- उत्तराध्ययन ८-व्यवहार ४.-पाचारांग ९-सूर्यप्रज्ञप्ति ५--सूत्रकृतांग १०-ऋषिभाषित आचारांगसूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों पर नियुक्ति प्राप्त होती है / मोतीलाल बनारसीदास इण्डोलाजिक ट्रस्ट दिल्ली द्वारा मुद्रित "प्राचारांगसूत्रं सूत्रंकृतांगसूत्र च" की प्रस्तावना में मुनि श्री जम्बूविजय जी ने प्राचारांग की नियुक्ति का गाथा-परिमाण 367 बताया है और महावीर विद्यालय द्वारा मुद्रित "पायारंगसुत्तं' की प्रस्तावना में उन्होंने यह स्पष्ट किया है / प्राचारांगसूत्र की चतुर्थ चूला तक प्रागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित 356 गाथायें हैं / मुनि श्री जम्बूविजयजी का यह अभिमत है कि नियुक्ति की 346 गाथाएँ और महापरिज्ञा अध्ययन की 7 माथाएँ–इस प्रकार 353 गाथाएं हैं। (पृष्ठ 359) तीन गाथाएँ मुद्रित होने में छूट गई हैं। किन्तु ऋषभदेव जी केशरीमलजी रतलाम की ओर से प्रकाशित प्रावृत्ति में 356 गाथाएँ हैं। पर, हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों में महापरिज्ञा अध्ययन को नियुक्ति की गाथा 18 हैं / इस प्रकार 367 गाथाएं मिलती हैं / 'जैन साहित्य का बृहद इतिहास' भाग तीन, पृष्ठ 110 पर 357 गाथाओं का उल्लेख है। नियुक्ति की प्राचीनतम प्रति का आधार ही विशेष विश्वनीय है। प्राचारांग-नियुक्ति, उत्तराध्ययन-नियुक्ति के पश्चात् और सूत्रकृतांग-नियुक्ति के पूर्व रची हुई है। सर्वप्रथम सिद्धों को नमस्कार कर आचार, अंग, श्रुत, स्कन्ध, ब्रह्म, चरण, शस्त्र-परिज्ञा, संज्ञा और दिशा पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया गया है। चरण के छह निक्षेप हैं, दिशा के सात निक्षेप हैं और शेष चार-चार निक्षेप हैं / प्राचार के पर्यायवाची एकार्थक शब्दों का उल्लेख करते हुए प्राचारांग के महत्त्व का प्रतिपादन किया है। प्राचारांग के नौ ही अध्ययनों का संक्षेप में सार प्रस्तुत किया है। शस्त्र और परिज्ञा इन शब्दों पर नाम, स्थापना आदि निक्षेपों से चिन्तन किया है। द्वितीय श्रतस्कन्ध में भी अन शब्द पर निक्षेप दष्टि से विचार करते हुए उसके पाठ प्रकार बताये हैं। १-द्रव्याग्र २-अवगाहनान ३–आदेशाग्न ४–कालान ५--क्रमाग्न ६-गणनाय ७-संचयाग्र८-भावान / भावान के तीन भेद हैं-१-प्रधानाय , 2 प्रभूतान, 3 उपकाराग्र / यहाँ पर उपकाराग्र का वर्णन है / चूलिकाओं के अध्ययन की भी निक्षेप की दृष्टि से व्याख्या की है। चणि नियुक्ति के पश्चात् "हिमवन्त थेरावली' के अनुसार प्राचार्य गन्धहस्ती द्वारा विरचित प्राचारांग-सूत्र के विवरण की सूचना है। प्राचार्य गन्धहस्ती का समय सम्राट विक्रम के 200 वर्ष के पश्चात का है / प्राचार्य शीलांक ने भी प्रस्तुत विवरण का सूचन करते हुए कहा है कि 'वह अत्यन्त क्लिष्ट होने के कारण मैं बहुत ही सरल और सुगम वृत्ति लिख रहा हूँ।' पर आज वह विवरण उपलब्ध नहीं है, अतः उसके सम्बन्ध में विशेष कुछ भी लिखा नहीं जा सकता। प्राचारांगसूत्र पर कोई भी भाष्य नहीं लिखा गया है / उसकी पांचवी चूला निशीथ है / उस पर भाष्य मिलता है / नियुक्ति पद्यात्मक है, किन्तु चूणि गद्यात्मक है / चूणि की भाषा संस्कृत मिश्रित प्राकृत है / आचारांगचूणि में उन्हीं विषयों का विस्तार किया गया है, जिन विषयों पर प्राचारांगनियुक्ति में चिन्तन किया गया है / अनुयोग, अंग, प्राचार, ब्रह्म, वर्ण, प्राचरण, शस्त्र, परिज्ञा, संज्ञा, [39] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org