________________ निर्देशन में इसका सम्पादन किया है। मुझे पाणा ही नहीं अपितु दृढ़ विश्वास है कि प्रस्तुत आगमरत्न सर्वत्र समादृत होगा / क्योंकि इसकी सम्पादन शैली अाधुनिकतम है व गम्भीर अन्वेषण-चिन्तन के साथ सुबोधता लिए हुए है। इस सम्पादन में अनेक परिशिष्ट भी हैं। विशिष्ट शब्दसूची भी दी गई है जिससे प्रत्येक पाठक के लिए प्रस्तुत सस्करण अधिक उपयोगी बन गया है। 'जाव' शब्द के प्रयोग व परम्परा पर सम्पादक ने संक्षिप्त में अच्छा प्रकाश डाला है। इसी तरह अन्य प्रागमों का प्रकाशन भी द्रुतगति से हो रहा है। मैं बहुत ही विस्तार के साथ प्रस्तावना लिखना चाहता था और उन सभी प्रश्नों पर चिन्तन भी करना चाहता था जो अभी तक अनछुए रहे / पर निरन्तर विहारयात्रा होने से समयाभाव व ग्रन्थाभाव के कारण लिख नहीं सका, पर जो कुछ भी लिख गया हूँ वह प्रबुद्ध पाठकों को आचारांग के महत्त्व को समझने में उपयोगी होगी ऐसी आशा करता हूँ। -देवेन्द्रमुनि शास्त्री दि. 18-2-80 फाल्गुन शुक्ला; 2036 जैन स्थानक, बोरीबली, बम्बई 42] Personal Use Only Jain Education International For Private www.jainelibrary.org