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________________ 316 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रृंतस्कन्ध . सोवधिए हु लुप्पती'- इस पंक्ति में 'उपधि' शब्द विशेष अर्थ को सूचित करता है / उपधि तीन प्रकार की बतायी गयी है-(१)शरीर,(२)कर्म और(३)उपकरण आदि परिग्रह / वैसे बाह्य-प्राभ्यन्तर परिग्रह को भी उपधि कहते हैं / भगवान मानते थे कि इन सबं उपधियों से मनुष्य का संयमी जीवन दब जाता है / ये उपधियाँ लुम्पक-लुटेरी हैं। 'जस्सित्थीओ परिष्णाता-स्त्रियों से यहाँ अब्रह्म-कामवासनाओं से तात्पर्य है / 'स्त्री' शब्द को अब्रह्मचर्य का प्रतीक माना है जो इन्हें भली-भांति समझकर त्याग देता है, वह कर्मों के प्रवाह को रोक देता है / यह वाक्य उपदेशात्मक है, ऐसा चूर्णिकार मानते हैं / परवस्त्र, परपात्र के सेवन का त्याग-णि के अनुसार भगवान ने दीक्षा के समय जो देवदृष्य वस्त्र धारण किया था, उसे 13. महीने तक सिर्फ कंधे पर टिका रहने दिया, शीतादि निवारणार्थ उसका उपयोग बिलकुल नहीं किया। वही वस्त्र उनके लिए स्ववस्त्र था, जिसका उन्होंने 13 महीने बाद व्युत्सर्ग कर दिया था, फिर उन्होंने पाडिहारिक रूप में भी कोई वस्त्र धारण नहीं किया। जैसे कि कई संन्यासी गृहस्थों से थोड़े समय तक उपयोग के लिए वस्त्र ले लेते हैं, फिर वापस उन्हें सौंप देते हैं। भगवान महावीर ने अपने श्रमण संघ में गृहस्थों के वस्त्र-पात्र का उपयोग करने की परिपाटी को सचित्त पानी प्रादि से सफाई करने के कारण पश्चात्कर्म आदि दोषों का जनक माना है। भगवान ने विजित होने के वाद प्रभम पारणे में गृहस्थ के पात्र में भोजन किया था, तत्पश्चात वे कर-पात्र हो गए थे। फिर उन्होंने किसी के पात्र में पाहार नहीं किया / बल्कि नालन्दा की तन्तुवायशाला में जब भगवान विराजमान थे, तब गोशालक ने उनके लिए आहार ला देने की अनुमति माँगी, तो 'गृहस्थ के पात्र में आहार लाएगा' इस सम्भावना के कारण उन्होंने गोशालक को मना कर दिया। केबलज्ञानी तीर्थकर होने पर उनके लिए-लोहार्य मुनि गृहस्थों के यहां से ग्राहार लाता था, जिसे वे पात्र में लेकर नहीं, हाथ में लेकर करते थे। आहार-सम्बन्धी दोषों का परित्याग-ग्राहार ग्रहण करने के समय भी जैसे दोषों से साव१. प्राचा * शीला * टीका पत्रांक 304 / 2. (क) आचा. शीला टीका पत्रांक 305 / (ख) इसके बदले चूणि कार 'तस्सित्थीओ परिष्णाता' पाठ मानते हैं, उसका अर्थ भगवान महावीर परक करके फिर कहते हैं- 'अहवा उवदेसिगमेव... जस्सिस्थीओ परिष्णाता / ' अर्थात् अथवा . यह उपदेशपरक वाक्य ही है जिसको स्त्रियाँ (स्त्रियों की प्रकृति) परिज्ञात हो जाती है।' --आचा० चूणि मू. पा० टिप्पण पृ० 52 3. चर्णिकार ने मासेवई य परवत्थं' मानकर अर्थ किया है -- "जं तं दिम्ब देवदूस पम्वयं तेग गहि त साहियं वरिस खंधेण चेव धरित ग वि पाउयं तं मुइत्ता सेस परवत्थ पाडिहारितर्माद ण धरितवांके वि इच्छति सवत्थं तस्स तत्, सेसं परवत्यं जंगादि तं णासेवितवां।" -प्राचारांग चूणि मूल पाठ टिप्पण पृ० 92 / 4. अावश्यक चूणि पूर्व भाग पृ० 271 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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