________________ नवम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 277 धान रहना पड़ता है, वैसे ही पाहार का सेवन करते समय भी। भगवान ने आहार सम्बन्धी निम्नोक्त दोषों को कर्मबन्धजनक मानकर उनका परित्याग कर दिया था (1) प्राधाकर्म आदि दोषों से युक्त आहार / (2) सचित्त अाहार / (3) पर-पात्र में आहा र-सेवन / (4) गृहस्थ आदि से आहार मँगा कर लेना, या पाहार के लिए जाने में निमंत्रण, मनुहार या सम्मान की अपेक्षा रखना।' --TF (5) मात्रा से अधिक आहार करना / (6) स्वादलोलुपता। (7) मनोज्ञ भोजन का संकल्प / / .: : 'अप तिरिय...'आदि गाथा में 'अप्प' शब्द अल्पार्थक न होकर निषेधार्थक है। चलते समय भगवान का ध्यान अपने सामने पड़ने वाले पथ पर रहता था, इसलिए न तो वे पीछे देखते थे, न दाएं-बाएँ, और न ही रास्ते चलते बोलते थे / / अणुक्कतो-का अर्थ वृत्तिकार करते हैं अनुचोर्ण-पाचरित / किन्तु चूर्णिकार इसके दो अर्थ फलित करते हैं- :.. ... (1) अन्य तीर्थंकरों के द्वारा प्राचरित के अनुसार आचरण किया / (2) दूसरे तीर्थंकरों के मार्ग का अतिक्रमण न किया / अतः यह अन्यानतिक्रान्त विधि है। 3 : . 'अपडिणेण भगवया' भगवान किसी विधि-विधान में पूर्वाग्रह से, निदान से या हठाग्रहपूर्वक बंध कर नहीं चलते थे। वे सापेक्ष-अनेकान्तवादी थे। यह उनके जीवन में हम देख सकते ॥प्रथम उद्देशक समाप्त / / / बिइओ उददेसओ. . द्वितीय उद्देशक शय्या-आसन चर्या / / 277. चरियासणाई' सेज्जाओ एगतियाओ जाओ बुइताओ। आइक्ख ताई सयणासणाई जाई सेवित्थ से महाबीरे // 64 / / 1. आचासंग मूल तथा बृत्ति पत्र,३०५ के आधार पर। .. प्राचा० शीला० टीका पत्र 305 / 3. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 305 / (ख) चूणि मूल पाठ सू० 276 का टिप्पण देखें / 4. प्राचा० शीला० टीका पत्र 306 के आधार पर / 5. चूणिकार ने दूसरे उद्देशक की प्रथम गाथा के साथ संगति बिठाते हुए कहा--चरियाणतरं सेज्जा, तद्वि भागो अवदिस्सति--च तासणाई सिजाओ एगतियागो जाओ वुतिताओ। आइक्ख ताति सयणासणाई जाई सेवित्य से महावीरे। एसा पुच्छा / चर्या के अनन्तर शय्या (वासस्थान) है, उसके विभाग का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org