________________ 320 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 278. आवेसण-सभा-पवासु' पणियसालासु एगदा वासो। अदुवा पलियट्ठाणेसु पलालपुजेसु एगदा वासो // 65 // 279. आगंतारे२ आरामागारे नगरे वि एगदा वासो। सुसाणे सुण्णगारे वा रुक्खमूले वि एगदा बासो // 66 // 280. एतेहिं मुणी सयहिं समणे आसि पतेरस वासे / राइंदिवं पि जयमाणे अप्पमत्ते समाहिते झाती // 67 / / 277. (जम्बूस्वामी ने प्रार्य सुधर्मास्वामी से पूछा)--'भंते ! चर्या के साथसाथ एक बार आपने कुछ प्रासन और वासस्थान बताये थे, अत: मुझे आप उन वासस्थानों और आसनों को बताएँ, जिनका सेवन भगवान महावीर ने किया था / / 64 // 278. भगवान कभी सूने खण्डहरों में, कभी सभाओं (धर्मशालाओं) में, कभी प्याउनों में और कभी पण्यशालाओं (दुकानों) में निवास करते थे। अथवा कभी लुहार, सुथार, सुनार आदि के कर्मस्थानों (कारखानों) में और जिस पर पलालपुज रखा गया हो, उस मंच के नीचे उनका निवास होता था / / 65! / 279. भगवान कभी यात्रीगृह में, कभी पारामगृह में, अथवा गाँव या नगर में निवास करते थे। अथवा कभी श्मशान में, कभी शून्यगृह में तो कभी वृक्ष के नीचे ही ठहर जाते थे / / 66 / / 280. त्रिजगत्वेत्ता मुनीश्वर इन (पूर्वोक्त) वासस्थानों में साधना काल के बारह वर्ष, छह महीने, पन्द्रह दिनों में शान्त और समत्वयुक्त मन से रहे। वे रातदिन (मन-वचन-काया की) प्रत्येक प्रवृत्ति में यतनाशील रहते थे तथा प्रमत्त और समाहित (मानसिक स्थिरता की) अवस्था में ध्यान करते थे // 67 / / निद्रात्याग-चर्या 281. णिई पि णो पगामाए सेवइया भगवं उठाए / जग्गावती य' अप्पाणं ईसि साई य अपडिण्णे / / 68 / / व्यपदेश करते हैं-"आपने एक दिन भगवान की चर्या प्रासन और शय्या के विषय में वहा था. : उन शयनों (वासस्थानों) और ग्रासनों के विषय में बताइए, जिनका भगवान महावीर ने सेवन किया था।" यह सुधर्मास्वामी से जम्बूस्वामी का प्रश्न है। 1. 'पणियसालासु' के बदले 'पणियगिहेसु' पाठ है / अर्थ समान है। 2. इसके बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है--""आरामागारे गामे रणे वि एकता बासो। अर्थात् आराम गृह में, गाँव में या वन में भी कभी-कभी निवास करते थे। 3. 'पतरसवासे' के बदले पाठान्तर 'पतेलसवासे' भी है। चूणिकार ने किया है --- 'पगतं पत्थिय वा तेरसमं वरिस, जेसि वरिमाणं ताणिमाणि-पतेरसवरियाणि ।"---तेरहवां वर्ष प्रगत-चल रहा था, प्रस्थित था--प्रस्थान कर चुका था। प्रत्रयोदश वर्ष से सम्बन्धित नो 'प्रत्रयोदशथपं.' कहते हैं / ' चणिकार ने स्वसम्मत तथा नागार्जुनीयसम्मत दोनों पाठ दिये हैं-णि 6 णो पगामादे सेव इया भगवं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org