________________ नवम अध्ययन : प्रथम उद्देश्क : सूत्र 265-276 317 क्रिया से और ईप्रित्यायिक क्रिया से / अयतनापूर्वक कषाययुक्त प्रमत्तयोग से की जाने वाली साम्परायिक क्रिया से कर्मबन्ध तीव्र होता है, संसारपरिभ्रमण बढ़ता है, जबकि यतनापूर्वक कषाय रहित होकर अप्रमत्तभाव से की जाने वाली ईर्याप्रत्ययक्रिया से कर्मों का बन्धन बहुत हो हल्का होता है, संसारपरिभ्रमण भी घटता है / परन्तु हैं दोनों ही पादानस्रोत / (2) अतिपातम्रोत-अतिपात शब्द में केवल हिंसा ही नहीं, परिग्रह, मैथुन, चोरी, असत्य आदि का भी ग्रहण होता है। ये प्रास्रव भी कर्मों के स्रोत हैं, जिनसे प्रतिपातक (पाप) होता है, वे सब (हिंसा आदि) अतिपात हैं / यही अर्थ चूर्णिकारसम्मत है। (3) त्रियोगरूप स्रोत - मन-वचन-काया इन तीनों का जब तक व्यापार (प्रवृत्ति) चलता रहेगा, तब तक शुभ या अशुभ कर्मों का स्रोत जारी रहेगा। यही कारण है कि भगवान ने अशुभ योग से सर्वथा निवृत्त होकर सहज वृत्त्या शुभयोग में प्रवृत्ति की। इस प्रकार कर्मों के स्रोतों को बन्द करने के साथ-साथ उन्होंने कर्ममुक्ति की विशेषत: पापकर्मो से सर्वथा मुक्त होने की साधना का।' भगवान महावीर को दृष्टि में निम्नोक्त कर्मस्रोत तत्काल बन्द करने योग्य प्रतीत हुए, जिनको उन्होंने बन्द किया (1) प्राणियों का प्रारम्भ / (2) उपधि-बाह्य-ग्राभ्यन्तर परिग्रह / (3) हिंसा की प्रवृत्ति / (4) स्त्री-प्रसंग रूप अब्रह्मचर्य / (5) प्राधाकर्म आदि दोषयुक्त अाहार / (6) पर-वस्त्र और पर-पात्र का सेवन / (7) आहार के लिए सम्मान और पराश्रय की प्रतीक्षा / (8) अतिमात्रा में प्राहार / (9) रस-लोलुपता। (10) मनोज्ञ एवं सरस आहार लेना। (11) देहाध्यास-आँखों में पड़ा रजकण निकालना, शरीर खुजलाना प्रादि / (12) अयतनाव चंचलता से गमन / (13) शीतकाल में शोत निवारण का प्रयत्न / ' कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला-का तात्पर्य है-राग-द्वप से प्रेरित होकर किये हए अपनेअपने कर्मों के कारण अज्ञ जीव पृथक्-पृथक् वार-बार सभी योनियों में अपना स्थान बना लेते हैं / 1. आचा० शीला• टीका पत्रांक 304 / 2. आचासंग मूल पाठ एवं वृत्ति-पत्र 304-305 के आधार पर / 3. आचा० शीला टीका पत्रांक 304 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org