________________ - आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध 276. ज्ञानवान् महामाहन भगवान महावीर ने इस (पूर्वोक्त क्रिया) विधि के अनुरूप प्राचरण किया / अनेक प्रकार से (स्वयं आचरित क्रियाविधि) का उपदेश दिया / अतः मुमुक्षुजन कर्मक्षयार्थ इसका अनुगमन करते हैं // 63 // --ऐसा मैं कहता हूँ। * विवेचन अहिंसा का विवेक-सूत्र 265 से 276 तक भगवान की अहिंसायुक्त विवेकचर्या का वर्णन है। पुनर्जन्म और सभी योनियों में जन्म का सिद्धान्त-पाश्चात्य एवं विदेशी धर्म पुनर्जन्म को मानने से इन्कार करते हैं, चार्वाक आदि मास्तिक तो कतई नहीं मानते, न वे शरीर में आत्मा नाम का कोई तत्त्व मानते हैं, न ही जीव का अस्तित्व वर्तमान जन्म के बाद मानते हैं / परन्तु पूर्वजन्म की घटनाओं को प्रगट कर देने वाले कई व्यक्तियों से प्रत्यक्ष मिलने और उनका अध्ययन करने से परामनोवैज्ञानिक भी इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि पुनर्जन्म है, पूर्वजन्म है, चैतन्य इसी जन्म के साथ समाप्त नहीं होता। भगवान महावीर के समय में यह लोक-मान्यता प्रचलित थी कि स्त्री मरकर स्त्री योनि में ही जन्म लेती है, पुरुष मरकर पुरुष ही होता है तथा जो जिस योनि में वर्तमान में है, वह अगले जन्म में उसी योनि में उत्पन्न होगा / पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीव पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीव ही बनेंगे, त्रसकायिक किसी अन्य योनि में उत्पन्न नहीं होंगे, सयोनि में ही उत्पन्न होंगे। भगवान ने इस धारणा का खण्डन किया और युक्ति, सूक्ति एवं अनुभूति से यह निश्चित रूप से जानकर प्रतिपादन किया कि अपने-अपने कर्मोदय क्श जीव एक योनि से दूसरी योनि में जन्म लेता है, त्रस, स्थावर रूप में जन्म ले सकता है और स्थावर, त्रस रूप भगवतीसूत्र में गौतम स्वामी द्वारा यह पूछे जाने पर कि 'भगवन् ! यह जीव पृथ्वीकाय के रूप से लेकर त्रसकाय के रूप तक में पहले भी उत्पन्न हुआ है ?' उत्तर में कहा है- "अवश्य, बार-बार ही नहीं, अनन्त बार सभी योनियों में जन्म ले चुका है। '2 इसीलिए कहा गया-"अदु थावरा . " अदुवा सदबाजोगिया सत्ता।" कर्मबन्धन के स्रोतों की खोज और मुक्ति की साधना—यह निश्चित है कि भगवान महावीर ने सर्वथा परम्परा की लीक पर न चलकर अपनी स्वतन्त्र प्रज्ञा और अनुभूति से सत्य को खोज करके प्रात्मा को बांधने वाले कर्मों से सर्वथा मुक्त होने की साधना की / उनकी इस साधना का लेखा-जोखा बहुत संक्षेप में यहाँ अंकित है। उन्होंने कर्मों के तीन स्रोतों को सर्वथा जान लिया था (१)आदानस्रोत-कर्मों का आगमन दो प्रकार की प्रियाओं से होता है--साम्परायिक 1. प्राचा० शीला टीका पत्र 304 / 2. "अयं णं भंते ! जीवे पुडविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववरणपुरवे ?' हता गोयमा ! असई अदुवा अणतनुत्तो जाव उववण्णपुटवे "-भगवतीसूत्र 1217 सूत्र 140 (अंग सु०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org