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________________ नधर्म अध्ययन : प्रेपम उद्देशक : सूत्र 265-276 .315 पृथक रूप से संसार में स्थित है या अज्ञानी जीव अपने कर्मों के कारण पृथक्-पृथक् रूप रचते हैं / / 14 / / 268. भगवान ने यह भलीभाँति जान-मान लिया था कि द्रव्य-भाव-उपधि (परिग्रह) से युक्त अज्ञानी जीव अवश्य ही (कर्म से) क्लेश का अनुभव करता है। अतः कर्मबन्धन को सर्वांग रूप से जानकर भगवान ने कर्म के उपादान रूप पाप का प्रत्याख्यान (परित्याग) कर दिया था / / 5 / / - 269. ज्ञानी और मेधावी भगवान ने दो प्रकार के कर्मों (ईनित्यय और साम्परायिक कर्म) को भलीभांति जानकर तथा प्रादान (दुष्प्रयुक्त इन्द्रियों के) स्रोत, अतिपात (हिंसा, मृषावाद आदि के) स्रोत और योग (मन-वचन-काया की प्रवृत्ति) को: सब प्रकार से समझकर दूसरों से विलक्षण (निर्दोष) क्रिया का प्रतिपादन किया है // 56 // 270 भगवान ने स्वयं पाप-दोष से रहित-निर्दोष अनाकुट्टि (अहिंसा) का आश्रय लेकर दूसरों को भी हिंसा न करने की (प्रेरणा दी) / जिन्हें स्त्रियाँ (स्त्री:: / सम्बन्धी काम-भोग के कटु परिणाम) परिज्ञात हैं, उन भगवान महावीर ने देख लिया था कि 'ये काम-भोग समस्त पाप-कमों के उपादान कारण हैं', (ऐसा जानकर भगवान . ने स्त्री-संसर्ग का परित्याग कर दिया) / / 57 // . . . . . . . . . . 271 भगवान ने देखा कि प्राधाकर्म आदि दोषयुक्त पाहार ग्रहण सब . तरह से कर्मबन्ध का कारण है, इसलिए उन्होंने प्राधाकर्मादि दोषयुक्त आहार का सेवन नहीं किया। भगवान उस पाहार से सम्बन्धित कोई भी पाप नहीं करते थे। वे प्रासुक आहार ग्रहण करते थे / / 58 / / ... . . . . . . . . 272 (भगवान स्वयं वस्त्र वा पात्र नहीं रखते थे इसलिए) दूसरे (गहस्थ या' साधू) के वस्त्र का सेवन नहीं करते थे, दूसरे के पात्र में भी भोजन नहीं करते थे। वे अपमान की परवाह न करके किसी की शरण लिए बिना (अदीनमनस्क होकर) : पाकशाला (भोजनगृहों) में भिक्षा के लिए जाते थे / / 59 / / . 273 भगवान अशन-पान की मात्रा को जानते थे, वे रसों में प्रासक्त नहीं थे, वे (भोजन-सम्बन्धी) प्रतिज्ञा भी नहीं करते थे, मुनोन्द्र महावीर आँख में रजकण . आदि पड़ जाने पर भी उसका प्रमार्जन नहीं करते थे और न शरीर को खुजलाते थे // 60 // 274. भगवान चलते हुए न तिरछे (दाएँ-बाएँ) देखते थे, और न पीछे-पीछे देखते थे, वे मौन चलते थे, किसी के पूछने पर बोलते नहीं थे / वे यतनापूर्वक मार्ग'को देखते हुए चलते थे / / 61 / / / 275. भगवान उस (एक) वस्त्र का भी- (मन से) व्युत्सर्ग कर चुके थे / . अत: शिशिर ऋतु में वे दोनों बाँहें फैलाकर चलते थे, उन्हें कन्धों पर रखकर खड़े. नहीं होते थे / / 62 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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