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________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्तन्य 275. सिसिरंलि अद्धपडिवण्णे तं वोसज्ज वत्थमणगारे। : पसारेत्तु 'बाहुं परक्कमे णो अवलंबियाण कंधसि // 62 // 276. एस विधी अणुक्कतो. माहणेण मतीमता। . बहुसो३ अपडिण्णेण भगबया एवं : रीयंति // 63 // ति बेमि / // पढमो उद्देसओ सम्मत्तो।। 265. पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, निगोद-शैवाल आदि, बीज और नाना प्रकार की हरी वनस्पति एवं प्रसकाय - इन्हें--सबै प्रकार से जानकर / / 2 / / 266. 'ये अस्तित्ववान् हैं', यह देखकर 'ये चेतनावान् है' यह जानकर, उनके स्वरूप को भलीभाँति अवगत करके वे भगवान महावीर उनके प्रारम्भ का परित्याग करके विहार करते थे / / 53 // 267. स्थावर (पृथ्वीकाय आदि) जीब स (द्वीन्द्रियादि) के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं और त्रस जीव स्थावर के रूप में उत्पन्न हो जाते हैं अथवा ससारी जीव सभी योनियों में उत्पन्न हो सकते हैं। अज्ञानी जीव अपने-अपने कर्मों से पृथक् 7. 'अप्पं वुतिए पडिभाणी' इस प्रकार का पाठान्तर मान कर चूर्णिकार ने अर्थ किया है - 'पुच्छिते अप्पं पडिभणति, अभावे दम्वो अप्पसद्दो, मोणेण अच्छति'-पूछने पर अल्प-नहीं बोलते थे, यहाँ भी ... अप्पशब्द अभाव अर्थ में समझना चाहिए / यानी भगवान मौन हो जाते थे। . 1. इसके बदले 'पसारेतु बाहुं पक्कम्म' पाठान्तर मानकर चर्णिकार ने अर्थ किया है--'बाहं (ह) पसा रिय कमति, णो अवलंबित्ताण कंठंसि, बाहूहि कंठोवलंबितेहिं हिययस्स उन्भा भवनि, तेण सभिज्जइ .. सरीरं, स तु भगवं सतुसारेवि सीते. जहापणिहिते बाहूहि परिकमितवा, ण को अवलंबितवां / अर्थात्-- . भगवान बाहें (नीचे) पसार कर चलते थे, कंठ में लटका कर नहीं, भुजाओं को कंठ में लटकाने से छाती का उभार हो जाता है. जिससे शरीर एकदम सट जाता है, किन्तु भगवान शीतऋतु में हिमपात ...... होने पर भी स्वाभाविक रूप से बाँहों को नीचे फैलाए हुए चलते थे, कंठ का सहारा लेकर नहीं। 2. इसके बदले पाठान्तर हैं-'अणोकतो', 'अण्णोक्कतो', 'यऽणोकतो' / चूणिकार ने अण्णोणोक्कतो और अणुक्कतो' ये दो पाठ मानकर अर्थ क्रमश: यों किया है-'रियाहिगारपडिसमाजस्थि (स्थं) इमं भषणति-एस. विही अण्णो (गो) क्कतो "अणु , पच्छाभावे, जहा अपहि तित्थगरेहि कतो, तहा तेणावि, अतो अणुक्कतो।' यह विधि अन्याऽनक्रान्त है-यानी दूसरे तीर्थरों के मार्ग का अतिक्रमण नहीं किया। चरिताधिकार प्रति सम्मानार्थ यह कहा गया है-एम विधी / -ह विधि अनुक्रान्त है / अनु पश्चाद्भाव अर्थ में है। जैसे अन्य तीर्थंकरों ने किया, वैसे ही उन्होंने भी किया, इसलिए कहा- अणुक्कतो। 3. चूणि में पाठान्तर है- अपडिण्ण वीरेण कासवेण महेरिणा। अर्थात् -- अज्ञ काश्य पगोत्रीय महर्षि महावीर ने बहुसो अपडियण रीय (ब) ति' को अर्थ चूणिकार में इस प्रकार किया है-'बहुसो इति अगसो पडिण्णो भणितो, भगवता रीयमाणेण रीयता एवं बेमि जहा मया मुतं / '-- बहुसो का अर्थ है--अनेक + बार, अपडिण्णो का अर्थ कहा जा चुका है। भगवान ने (इस चर्या के अनुमार) चलकर। चूणियार को रीयंति के बदले ‘रीयता' पाठ सम्मत मालूम होता है। / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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