________________ नवम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 265-276 313 267. अदु थावरा तसत्ताए तसजीवा य थावरत्ताए। अदुवा' सध्वजोणिया सत्ता कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला // 54 // 268. भगवं च एवमण्णेसि सोवधिए हुलुपती बाले / कम्मं च सव्वसो णच्चा तं पडियाइखे पावगं भगवं // 55 // 269. दुविहं समेच्च मेहावी किरियमक्खायमणेलिसि णाणी। आयाणसोतमतिवातसोतं जोगं च सव्यसो गच्चा // 56 // 270. अतिवत्तियं अणाउटिंट सयमण्णेसि अकरणयाए / जस्सित्थोओ परिण्णाता सम्वकम्मावहाओ सेऽदक्खू // 57 // 271. अहाकडं ण से सेवे सव्वसो कम्मुणा य अदक्ख / जं किंचि पावगं भगवं तं अकुव्वं वियर्ड भुजित्था // 58 // 272. णासेवइय परवत्थं परपाए वि से ण भुजित्था / परिवज्जियाण ओमाणं गच्छति संखडिं असरणाए // 59 // 273. मातण्णे असणपाणस्स गाणुगिद्धे रसेसु अपडिण्णे / अच्छि पिणो पमज्जिया णो वि य कंडयए मुणी गातं // 60 // - 274. अयं तिरियं फेहाए अप्पं पिटुओ उपेहाए / अप्पं बुइए पडिभाणी पंथपेही चरे जतमाणे // 61 // 1. 'अदु (वा) सस्वजोणिया सत्ता' का अर्थ चूर्णिकार करते हैं-'अदुति अधसद्दा अबभंसो सुहदुह उच्चारणत्ता।' -- 'अदु' शब्द 'अधस द्दा' या 'अदुहा' का अपभ्रंश है, इसका अर्थ होता है-जो अपने सुख-दुःख का उच्चारण कर (कह) नहीं सकते, ऐसे सर्वयौनिक प्राणी। भगवं च एव मण्णेसि का अर्थ चणिकार ने इस प्रकार किया है-च पूरणे, एवमवधारणे, एवं अन्त्रिसित्ता ज भणितं भवति अणचितेत्ता।'--इस प्रकार भगवान को प्रनिश्रित-अज्ञानी जो कुछ वचन बोलते थे, उस पर वे अनुचिन्तन करते / यानी सिद्धान्तानुसार चिन्तन करते थे। 3. इसका अर्थ चूर्णिकार ने इस प्रकार किया है--"इव्हि कोरतीति कम्म... सतित्थग रक्खाय अन्ने लिसं-असरिसं. किरियं च / " दो प्रकार के कर्म... जो कि समस्त तीर्थकरों द्वारा प्रतिपादित थे (उन्हें जानकर) असरश-अनुपम त्रिया वा प्रतिपादन किया। 4. अतिवत्तिय के बदले किसी-किमी प्रति में "अतिवाइम अतिवातिय" पाठ मिलते हैं, इन दोनों का अर्थ है-पातक (पाप) से अतिक्रान्त-निर्दोष (निष्पाप)। अतिवत्तियं का अर्थ चूर्णिकार ने यों किया है-अतिवत्तिय अणाटिट अतिवादिजाति जेण सो अतिवादो हिंसादि, आउंटणं करणं तं अतिवातं णाउट्टति-जिससे प्रतिपाद किया जाता है, वह अतिपाद-हिमादि है / प्राकुट्टण करना अतिपात है__ हिसा है इसलिए अनाकृट्टि अहिंगा-अनतिपात का नाम है। 5. 'सव्वसो कम्मुणा य अभया' से लेकर 'ज किं चि पावगं तक पंक्ति में पाठान्तर चूणिसम्मत यों है ' कम्मुणा य अवक्खु जं किंचि अपावर्ग' अर्थात् —जो कुछ पाप हित है, उसे कर्म से देख लिया था। 6. 'अप्प' प्रादि पंक्ति का अर्थ चर्णिकार ने यों किया है-"अप्पमिति अभावे' ण गच्छतो तिरियं पेहितवां, ण वा पिट्ठतो पच्चष नोगितवा ।'----अप्प यहाँ अभाव अर्थ में प्रयुक्त है / अर्यान्-- भगवान चलते समय न तिरछा (दाएँ-बाएँ) देखते थे और न पीछे देखते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org