________________ 112 माधारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्करवा सातवां विघ्न-यह भी एक ध्यानविन था बड़े भाई नंदीवर्द्धन के प्राग्रह से दो वर्ष तक गृहवास में रहने का / माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् 28 वर्षीय भगवान ने प्रव्रज्या लेने की इच्छा प्रगट की, इस पर नंदीवद्धन आदि ने कहा--"कुमार ! ऐसी बात कहकर हमारे घाव पर नमक मत छिड़को। माता-पिता के वियोग का दुःख ताजा है, उस पर तुम्हारे श्रमण बन जाने से हमें कितना दुःख होगा!" . .. __ भगवान ने अवधिज्ञान में देखकर सोचा-"इस समय मेरे प्रवृजित हो जाने से बहुत-से लोक शोक-संतप्त होकर विक्षिप्त हो जाएँगे, कुछ लोग प्राण त्याग देंगे।" अतः भगवान ने पुछा-- "आप ही बतलाएँ, मुझे यहाँ कितने समय तक रहना होगा ?" उन्होंने कहा- “मातापिता की मृत्यु का शोक दो वर्ष में दूर होगा। अतः दो वर्ष तक तुम्हारा घर में रहना आवश्यक है।" ___ भगवान ने उन्हें इस शर्त के साथ स्वीकृति दे दी कि, "मैं भोजन आदि के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रहँगा।" नन्दीवर्द्धन आदि ने इसे स्वीकार किया।' और सचमुच ध्यान-विघ्नकारक गहवास में भी निलिप्त रहकर साधु-जीवन की साधना की। एगत्तिगते-एकत्वभावना से भगवान का अन्तःकरण भावित हो गया था। तात्पर्य यह है कि "मेरा कोई नहीं है, न मैं किसी का हूँ।" इस प्रकार की एकत्वभावना से वे प्रोत-प्रोत हो गए थे। वृत्तिकार और चूर्णिकार को यही व्याख्या अभीष्ट है / ' पिहितञ्चे-शब्द के चर्णिकार ने दो अर्थ किए हैं-अर्चा का अर्थ प्रास्रव करके इसका एक अर्थ किया है जिसके प्रास्रव-द्वार बन्द हो गए हैं। (2) अथवा जिसकी अप्रशस्तभाव रूप अचियाँ अर्थात् राग-द्वेष रूप प्रग्नि की ज्वालाएँ शान्त हो गयी हैं, वह भी पिहिताज़े है। वत्तिकार ने इससे भिन्न दो अर्थ किए है-(१) जिसने अर्चा-क्रोध-ज्वाला स्थगित कर दी है, वह पिहिताज़ है, अथवा (2) अर्चा यानी तन (शरीर) को जिसने पिहितसंगोपित कर लिया है, वह भी पिहितार्च है।' हिसा-विवेकयुक्त चर्या 265. पुढवि च आउकायं च तेउकायं च वायुकायं च / पणगाईबीयहरियाई तसकायं च सध्वसो बच्चा // 52 // 266. एताई संति पडिलेहे चित्तमंताई से अभिष्णाय / परिवज्जियाण विहरित्था इति संखाए से महावीरे // 53 // 1. प्राचा० शीला० टीका पत्र 303 / 2. (क) प्राचा. 'शीला० टीका पत्र 303 / (ख) आचारांग चूणि----प्राचा० मूलपाठ टिप्पण 10 91 / 3. (क) पिहितचा के अर्थ चूर्णिकार ने यों किए है-पिहिताओ अच्चाओ जस्स भवति पिहितासयो. अच्चा पुवणिता "भावाचातो वि अप्पसत्थाओ पिहिताओ रागदोसाणिलजाला पिहिता। ..... प्राचारांग गि-आचा० मूलपाट टिप्पण पृ० 11 / (ख) आचा• शीला० टीका पत्र 303 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org