________________ नवम अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सत्र 258-264 ध्यान-साधना में विघ्न-पहला विघ्न- भगवान महावीर जब पहर-पहर तक तिर्यकभित्ति पर दृष्टि जमाकर ध्यान करते थे, तब उनकी आँखों की पुतलियाँ ऊपर उठ जातीं, जिन्हें देख कर बालकों की मण्डली डर जाती और बहुत-से बच्चे मिलकर उन्हें 'मारो-मारो' कह कर चिल्लाते। वृत्तिकार ने सा हंता बहवे दिसु' का अर्थ किया है.--"बहुत-से बच्चे मिलकर भगवान को धूल से भरी मुट्ठियों से मार-मार कर चिल्लाते, दूसरे बच्चे हल्ला मचाते कि देखो, देखो इस नंगे मुण्डित को, यह कौन है ? कहाँ से आया है ? किसका सम्बन्धी है ? आशय यह है कि बच्चों की टोली मिलकर इस प्रकार चिल्ला कर उनके ध्यान में विघ्न करती। पर महावीर अपने ध्यान में मग्न रहते थे। यह पहला विघ्नं था।' . दूसरा विघ्न-भगवान एकान्त स्थान न मिलने पर जब गृहस्थों और अन्यतीथिकों से संकुल स्थान में ठहरते तो उनके अद्भुत रूप-यौवन से आकृष्ट होकर कुछ कामातुर स्त्रियाँ आकर उनसे प्रार्थना करतीं, वे उनके ध्यान में अनेक प्रकार से विघ्न डालतीं, मगर महावीर अब्रह्मचर्य-सेवन नहीं करते थे, वे अपनी अन्तरात्मा में प्रविष्ट होकर ध्यानलीन रहते थे। तीसरा विघ्न-भगवान को ध्यान के लिए एकान्त शान्त स्थान नहीं मिलता, तो वे गहस्थ-संकुल स्थान में ठहरते, पर वहाँ उनसे कई लोग तरह-तरह की बातें पूछकर या न पूछकर भी हल्ला-गुल्ला मचाकर ध्यान में विघ्न डालते, मगर भगवान किसी से कुछ भी नहीं कहते / एकान्त क्षेत्र की सुविधा होतो तो वे वहाँ से अन्यत्र चले जाते, अन्यथा मन को उन सब परिस्थितियों से हटाकर एकान्त बना लेते थे, किन्तु ध्यान का वे हगिज अतिक्रमण नहीं करते थे। चौथा विघ्न-भगवान अभिवादन करने वालों को भी प्राशीर्वचन नहीं कहते थे और पहले (चोरपल्ली आदि में) जब उन्हें कुछ अभागों ने डंडों से पीटा और उनके अंग-भंग कर दिए या काट खाया, तब भी उन्होंने शाप नहीं दिया था। स-मौन अपने ध्यान में मग्न रहे। यह स्थिति अन्य सब साधकों के लिए बड़ी कठिन थो। पाँचवां विघ्न-उनमें से कोई कठोर दुःसह्य वचनों से क्षुब्ध करने का प्रयत्न करता, तो कोई उन्हें आख्यायिका, नत्य, संगीत, दण्डयुद्ध, मुष्टियुद्ध आदि कार्यक्रमों में भाग लेने को कहता, जैसे कि एक वीणावादक ने भगवान को जाते हुए रोक कर कहा था- "देवार्य ! ठहरी;" मेरा वीणावादन सुन जानो।"५ भगवान् प्रतिकूल-अनुकूल दोनों प्रकार की परिस्थिति को . ध्यान में विघ्न समझकर उनसे विरत रहते थे। वे मौन रह कर अपने ध्यान में ही पराक्रम करते रहते। छठा विघ्न---कहीं परस्पर कामकथा या गप्पं हाँकने में ग्रासक्त लोगों को भगवान हर्षशोक से मुक्त (तटस्थ) होकर देखते थे। उन अनुकल-प्रतिकल उपसर्ग रूप विघ्नों को वे स्मृतिपट पर नहीं लाते थे, केवल आत्मध्यान में तल्लीन रहते थे। 2. प्राचा० शीला० टीका पत्र 3.2 / / 1. प्राचा० शीला टीका पत्र 302 / 3. आचा० शीला टीका पत्र 302 / / 4. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्र 302 / 5. आयारो (मुनि नथमल जी) पृ० 343 / (ख) प्राचारांग चूणि, पृ. 303 // 6. पावा० शीला० टीका पत्र 303 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org