________________ माचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध अनार्य देश आदि में डंडों से पीटने, फिर उनके बाल खींचने या अंग-भंग करने वाले प्रभागे अनार्य लोगों को वे शाप नहीं देते थे। भगवान की यह साधना अन्य साधकों के लिए सुगम नहीं थी।॥४८।। 262. (अनार्य पुरुषों द्वारा कहे हुए) अत्यन्त दुःसह्य, तीखे वचनों की परवाह न करते हुए मुनीन्द्र भगवान उन्हें सहन करने का पराक्रम करते थे। वे आख्यायिका, नृत्य, गीत, दण्डयुद्ध और मुष्टियुद्ध आदि (कौतुकपूर्ण प्रवृत्तियों) में रस नहीं लेते थे // 49 // . 263, किसी समय परस्पर कामोत्तेजक बातों या व्यर्थ की गप्पों में प्रासक्त लोगों को ज्ञातपुत्र भगवान महावीर हर्ष-शोक से रहित होकर (मध्यस्थभाव से) देखते थे / वे इन दुर्दमनीय (अनुकूल-प्रतिकूल परीषहोपसर्गो) को स्मरण न करते हुए विचरण करते थे।॥५०॥ 264. (माता-पिता के स्वर्गवास के बाद) भगवान ने दो वर्ष से कुछ अधिक समय तक गहवास में रहते हुए भी सचित्त (भोजन) जल का उपभोग नहीं किया। परिवार के साथ रहते हुए भी वे एकत्वभावना से ओत-प्रोत रहते थे, उन्होंने क्रोध-ज्वाला को शान्त कर लिया था, वे सम्यग्ज्ञान-दर्शन को हस्तगत कर च के थे और शान्तचित्त हो गये थे। (यों गृहवास में साधना करके) उन्होंने अभिनिष्क्रमण किया / / 51 // विवेचन-ध्यान साधना और उसमें आने वाले विध्नों का परिहार-सूत्र 258 से 264 तक भगवान महावीर की ध्यानसाधना का मुख्यरूप से वर्णन है / धर्म तथा शुक्ल ध्यान की साधना के समय तत्सम्बन्धित विघ्न-बाधाएँ भी कम नहीं थीं, उनका परिहार उन्होंने किस प्रकार किया और अपने ध्यान में मग्न रहे ? इसका निरूपण भी इन गाथानों में है। 'तिरिभित्ति चक्खुमासज्ज अंतसो माति' इस पंक्ति में "तिर्यमिति' का अर्थ विचारणीय है। भगवती सूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि तिमित्ति' का अर्थ करते हैं-प्राकार, वरण्डिका आदि की भित्ति अथवा पर्वतखण्ड / ' बौद्ध साधकों में भी भित्ति पर दृष्टि टिका कर ध्यान करने की पद्धति रही है। इसलिए तिर्यकभित्ति का अर्थ 'तिरछी भीत' ध्यान की परम्परा के उपयक्त लगता है, किन्तु वृत्तिकार प्राचार्य शीलांक ने इस सूत्र को ध्यानपरक न मान कर गमनपरक माना है। 'शाति' शब्द का अर्थ उन्होंने ईर्यासमितिपूर्वक गमन करना बताया है मथा पौरुषी बीथी' संस्कृत रूपान्तर मानकर अर्थ किया है---पीछे से पुरुष प्रमाण (प्रादमकद) लम्बी बीथी (गली) और आगे से बैलगाड़ी के धूसर की तरह फैली हुयी (विस्तीण) जगह पर नेत्र जमा कर यानी दत्तावधान हो कर चलते थे। ऐसा अर्थ करने में वृत्तिकार को बहन खींचातानी करनी पड़ी है / इसलिए ध्यानपरक अर्थ ही अधिक सीधा और संगत प्रतीत होता है। जो ऊपर किया गया है। 1. भगवती सूत्र वृत्ति पत्र 643-644 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 302 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org