________________ नवम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 258-264 261. णो सुकरमेतमेगेसि गाभिभासे अभिवादमाणे / हयपुवो तस्थ डेहि लूसियपुवो अप्पपुहि // 48 // 262. फरिसाई दुतितिक्खाई अतिअच्च मुणी परक्कमाणे / __आपात-गट्ट-गीताई दंडजुद्धाइं मुठ्ठिजुद्धाइं // 49 // 263. गहिए मिहोकहासु समयम्मि णातसुते विसोगे अदक्ख / एताई से उरालाइं गच्छति णायपुत्ते असरणाए // 50 // 264. अविर साधिए दुवे बासे सीतोवं अभोच्चा णिषखंते। ___ एगत्तिगते पिहितच्चे से अभिण्णायदसणे संते // 51 // - 258. भगवान एक-एक प्रहर तक तिरछी भीत पर आँखें गड़ा कर अन्तरात्मा में ध्यान करते थे। (लम्बे समय तक अपलक रखने से पुतलियाँ ऊपर को उठ जाती) अतः उनकी आँखें देखकर भयभीत बनी बच्चों की मण्डली 'मारो-मारो' कहकर चिल्लाती, बहुत से अन्य बच्चों को बुला लेती // 45 // 259. (किसी कारणवश) गृहस्थ और अन्यतीथिक साधु से संकुल स्थान में ठहरे हुए भगवान को देखकर, कामाकुल स्त्रियाँ वहाँ अाकर प्रार्थना करतीं, किन्तु वे भोग को कर्मबन्ध का कारण जानकर सागारिक (मैथुन) सेवन नहीं करते थे / वे अपनी अन्तरात्मा में गहरे प्रवेश कर ध्यान में लीन रहते / / 46 / / 260. यदि कभी गृहस्थों से युक्त स्थान प्राप्त हो जाता तो भी वे उनमें घुलते-मिलते नहीं थे। वे उनके संसर्ग (मिश्रीभाव) का त्याग करके धर्मध्यान में मग्न रहते। वे किसी के पूछने (या न पूछने पर भी नहीं बोलते थे। (कोई बाध्य करता तो) वे अन्यत्र चले जाते, किन्तु अपने ध्यान या मोक्षपथ का अतिक्रमण नहीं करते थे / / 47 / / 261. वे अभिवादन करने वालों को आशीर्वचन नहीं कहते थे, और उन 1 "गडिए मिहोकहा समयम्मि गच्छति गातिवत्तए अदालु" प्रादि-पाठान्तर मान कर चूर्णिकार ने इस प्रकार अर्थ किया है- गद्विते विधूतसमयं ति गढितं, यदुक्तं भवति बद्ध" "मिहो कहा समयो' एवमादी यो गच्छति गातिवत्तए' = गत हरिसे-प्ररत्त अदुठे अलोमपडिलोमेसु विसोगे विगतहरिसे अदक्षु ति दळू।" अर्थात् परस्पर कामकथा प्रादि बातों में व्यर्थ समय को खोते देख कर अथवा उन बातों में परस्पर उलझे देखकर भगवान चल पड़ते, न तो वे हर्षित होते, न अनुरक्त और न ही द्वेष करते / अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ देखकर वे हर्ष-शोक से रहित रहते थे। 2. 'अवि साधिए दुवे वासे' का अर्थ चूर्णिकार ने यों किया है- "अह तसिं तं अबत्थं गच्चा साधिते दुहे (वे) वासे"- (माता-पिता के स्वर्गवास के अनन्तर) उन (पारिवारिक जनों) का मन अस्वस्थ जान कर दो वर्ष से अधिक समय गृहवास में बिताया। 3. एगत्तिगते का अर्थ चूणिकार ने यों किया है-“एमत्त एगत्ती, एगत्तिगतो णाम, ‘ण मे कोति, गाहम वि कस्सति"--एकत्व को प्राप्त का नाम एकत्वोगत है, मेरा कोई नहीं है, न मैं किसी का " इस प्रकार की भावना का नाम एकस्वगत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org