________________ 308 माचारोग सूत्र-प्रथम श्रुतस्करच . . चूर्णिकार भी इसी बात का समर्थन करते हैं--भगवान ने उस वस्त्र को एक वर्ष तक यथारूप धारण करके रखा, निकाला नहीं। अर्थात् तेरहवें महीने तक उनका कन्धा उस बस्त्र से रिक्त नहीं हुआ। अथवा उन्हें उस वस्त्र को शरीर से अलग नहीं करना था। क्योंकि सभी तीर्थंकर उस या अन्य वस्त्र सहित दीक्षा लेते हैं। भगवान ने तो उस वस्त्र का भाव से पंरित्याग कर दिया था, किन्तु स्थितिकल्प के कारण वह कन्धे पर पड़ा रहा। स्वर्णबालुका नदी के प्रवाह में बह कर आये हुए काँटों में उलझा हुआ देख पुनः उन्होंने कहा-मैं वस्त्र का व्युत्सर्जन करता हूँ।' इस पाठ से ब्राह्मण को वस्त्रदान का संकेत नहीं मिलता है / निष्कर्ष यह है कि भगवान पहले एक वस्त्रसहित दीक्षित हुए, फिर निर्वस्त्र हो गये, यह परम्परा के अनुसार किया गया था। पाणनाइया-का अर्थ वृत्तिकार और चूर्णिकार दोनों 'भ्रमर आदि करते हैं। " मासिया-का अर्थ चूर्णिकार करते हैं- 'अत्यन्त रुष्ट होकर'3 जबकि वृत्तिकार अर्थ करते हैं-मांस व रक्त के लिए शरीर पर चढ़कर.. ध्यान-साधना 258. अदु पोरिसिं तिरियभित्ति चक्खुमासज्ज अंतसो झाति / अह चक्खभीतसहिया ते हंता हंता बहवे कंदिस॥ 45 // 259. सयहि वितिमिस्से हि इत्थीओ तस्थ से परिणाय / ___सागारियं न से सेवे इति से सयं पवेसिया माति / / 46 // ..२६०.जे केयिमे अगारस्था मोसोभावं पहाय से साति / . पुट्ठो' वि . णाभिभासिसु गच्छति गाइवत्तती अंजू / / 47 // 1. इसी सन्दर्भ में 'जण रिकासि' का अर्थ चूमि में इस प्रकार है--"सो हि भगवंसं वत्थ संबच्छरमेग : अहाभावेण धरितवा, ग तु निक्कासते, सहिय मासेण साहिय मासं, त तस्स खंध तेण पत्येगण रिक्क - भासि / अहवा गणिक्कासितवं तं वत्थं सरीराओ। सतित्थगराण का तेण अन्नेण वा साहिज्जइ, भगवता तुतं पव्वइयमित्तग भावतो मिसळं तहा वि सुवप्नयालुमनीपूरअवहिसे कंठए सग्गं बटुं पुणो वि वुच्चइ बोसिरामि।"-आचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पण पृ० 89 (मुनि जम्बूविजयजी) 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 301 / 3. आहसियागं का अर्थ चूर्णिकार ने किया है --अच्चत्वं रुस्सित्तागं आरुस्सित्तागं / 4. 'सागारियं ग से सेवे' का अर्थ चूर्णि में इस प्रकार है-'सागारियं णाम मेहुणं तं ण सेवति / " अर्थात् -सागारिक यानी मथुन का सेवन नहीं करते थे। 8. इसके बदले चूणि में पाठान्तर है -~~ "पुढे व से अपुढे वा गच्छति णातिवत्तए अंजू।" अर्थ इस प्रकार है--किसी के द्वारा पूछने या न पूछने पर भगवान बोलते नहीं थे, वे अपने कार्य में ही प्रवृत्त रहते / उनके द्वारा (भला-बुरा) कहे जाने पर भी वे सरलात्मा मोक्षपथ या ध्यान का अतिक्रमण नहीं करते थे। नागार्जुनीय सम्मत पाठान्तर यों है---"पुछो / सो अपुट्ठो का जो अणुजाणाति पावग भगव'--- अर्थात् --पूछने पर या न पूछने पर भगवान किसी पाप कर्म की अनुज्ञा अथवा अनुमोदना नहीं करते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org