________________ हैं और उसके बाद ग्यारह अंगों का अर्थ कहते हैं। और उसी क्रम से गणधर भी सूत्र की रचना कहते हैं।" आचार्य शीलाङ्क का भी यही अभिमत है कि तीर्थकर प्राचारांग के अर्थ का प्ररूपण ही सर्वप्रथम करते हैं। और गणधर भी उसी क्रम से स्थापना करते हैं। समवायांगवृत्ति में प्राचार्य अभयदेव ने यह भी लिखा है कि प्राचारांग-सूत्र स्थापना की दृष्टि से प्रथम है किन्तु रचना की दृष्टि से वह बारहवां हैं। पूर्व साहित्य से अंग निर्यढ़ हैं इस दृष्टि से प्राचारांग को स्थापना की दृष्टि से प्रथम माना है पर रचनाक्रम की दृष्टि से नहीं। प्राचार्य हेमचन्द्र और गुणचन्द्र ने, जिन्होंने भगवान महावीर के जीवन की पवित्र गाथाएँ अंकित की हैं, उन्होंने लिखा है कि भगवान महावीर ने गौतम प्रभूति गणघरों को सर्वप्रथम त्रिपदी का ज्ञान प्रदान किया। और उन्होंने त्रिपदी से प्रथम चौदह पूर्वो की रचना को और उस के बाद द्वादशांगी की रचना की। यह सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि अंगों से पहले पूर्वो की रचना हुयी तो द्वादशांगी की रचना में प्राचारांग का प्रथम स्थान किस प्रकार है ? समाधान है; पूर्वो की रचना प्रथम होने पर भी आचारांग का द्वादशांगी के क्रम में प्रथम स्थान मानने पर बाधा नहीं पाती है। कारण कि बारहवां अंग दृष्टिवाद है / दृष्टिवाद के परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग, चूलिका ये पाँच विभाग हैं। उसमें से एक विभाग पूर्व है। सर्वप्रथम गणधरों ने पूर्वो की रचना की, पर बारहवें अंग दुष्टिवाद का बहुत बड़े हिस्से का ग्रन्थन तो प्राचारांग प्रादि के क्रम से बारहवें स्थाग पर ही हुआ है। ऐसा कहीं पर भी उल्लेख नहीं है कि दृष्टिवाद का ग्रथन सर्वप्रथम किया हो, इसलिये नियुक्तिकार का यह कथन कि प्राचारांग रचना व स्थापना की दृष्टि से प्रथम है, युक्तियुक्त प्रतीत होता है। आचारांग की महत्ता का प्रतिपादन करते हए चणिकार और वत्तिकार ने लिखा है कि प्रतीत काल में जितने भी तीर्थकर हुए हैं, उन सभी ने सर्वप्रथम आचारांग का उपदेश दिया, वर्तमान में जो तीर्थंकर महाविदेह क्षेत्र में विराजित हैं वे भी सर्वप्रथम प्राचारांग का ही उपदेश देते हैं और भविष्यकाल में जितने भी तीर्थकर होंगे वे भी सर्वप्रथम आवारांग का ही उपदेश देंगे। आचारांग को सर्वप्रथम स्थान देने का कारण यह है कि संघ-व्यवस्था की दृष्टि से प्राचार-संहिता की सर्वप्रथम प्रावश्यकता होती है। जब तक आचार-संहिता की स्पष्ट रूपरेखा न हो वहाँ तक सम्यक प्रकार से प्राचार का पालन नहीं किया जा सकता। अतः किसी का भी प्राचारांग की प्राथमिकता के सम्बन्ध में विरोध नहीं है। यहाँ तक कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं ने अंग साहित्य में आचारांग को सर्वप्रथम स्थान दिया है। प्राचारांग में विचारों के ऐसे मोती पिरोये गये हैं जो प्रबुद्ध पाठकों के दिल लुभाते हैं, मन को मोहते हैं। यही कारण है कि संक्षिप्त शैली में लिखित सूत्रों का अर्थ रूपी शरीर 1. सव्वे तित्थगरा वि आयारस्स प्रत्थं पढम प्राइक्खन्ति, ततो सेसगाणं एक्कारसण्हं अंगाणं ताएच्चेब परिवाडीए गणहरा दि सुतं गंथंति / इयाणि पढममंगति किं निमित्तं पायारो पढमं ठवियो। --प्राचारांग चूर्णी 2. आचारांग वृत्ति, पृष्ठ 6 / 3. समवायांग वृत्ति, पृष्ठ 101 / 4. त्रिषष्ठि० 1015165 5. महावीरचरियं 8 / 257 श्री गुणचन्द्राचार्य / 6. अभिधान चिन्तामणि 160 / 7. प्राचारांग चूर्णी, पृष्ठ 3 8. प्राचारांग शीलांक वृत्ति, पृष्ठ 6 / [ 25 ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International