________________ 212 आचारांग सूत्र--द्वितीय भु तस्कन्ध साधु के लिए वर्जनीय हैं। विवेक अपनाकर साधु इसप्रकार की सावध एवं अनाचरणीय भाषाओं का त्याग करे। वह साधु या साध्वी ध्रव (भविष्यत्कालीन वृष्टि आदि के विषय में निश्चयात्मक) भाषा को जान कर उसका त्याग करे, अध्रव (अनिश्चयात्मक) भाषा को भी जान कर उसका त्याग करे / 'वह अशनादि चतुर्विध आहार लेकर ही आएगा, या आहार लिए बिना ही आएगा, वह आहार करके ही आएगा, या आहार किये बिना ही आ जाएगा, अथवा वह अवश्य आया था या नहीं आया था, वह आता है, अथवा नहीं आता है, वह अवश्य आएगा, अथवा नहीं आएगा; वह यहां भी आया था, अथवा वह यहाँ नहीं आया था वह यहाँ अवश्य आता है, अथवा कभी नहीं आता, अथवा वह यहाँ अवश्य आएगा या कभी नहीं आएगा, (इस प्रकार की एकान्त निश्चयात्मक भाषा का प्रयोग साधु-साध्वी न करे)। विवेचन-भाषागत आचार-अनाचार का विवेक-प्रस्तुत सूत्र में भाषा के विहित एवं निषिद्ध प्रयोगों का रूप बताया है। इसमें मुख्यतया 6 प्रकार की सावद्यभाषा का प्रयोग निषिद्ध बताया है-(१) क्रोध से, (2) अभिमान से, (3) माया-कपट से, (4) लोभ से, (5) जानते-अजानते कठोरतापूर्वक, और (6) सर्वकाल सम्बन्धी, तथा सर्वक्षेत्र सम्बन्धी निश्चयात्मक रूप मे। उदाहरणार्थ--क्रोध के वश में होकर किसी को कह देना--तू चोर है, बदमाश है, अथवा धमकी दे देना, झिड़क देना, मिथ्यारोप लगा देना आदि / अभिमानवश-किसी से कहना-- मैं उच्च जाति का हूं, तू तो नीची जाति का है, मैं विद्वान् हूँ, तू मूर्ख है, आदि। मायावश-मैं बीमार हूँ, मैं इस समय संकट में हूँ, इसप्रकार कपट करके कार्य से या मिलने आदि से किनाराकसी करना / लोभवश-किसी से अच्छा खान-पान, सम्मान या वस्त्रादि पाने के लोभ से उसकी मिथ्या-प्रशंसा करना या सौदेबाजी करना आदि / कठोरतावश-जानते-अजानते किसी को मर्मस्पर्शी वचन बोलना, किसी की गुप्त बात को प्रकट करना आदि। इसीप्रकार सर्वकाल क्षेत्र सम्बन्धी निश्चयात्मक भाषा-प्रयोग के कुछ उदाहरण सूत्र में दे दिये हैं। विउंजंति की व्याख्या-विविध प्रकार से भाषा प्रयोग करते हैं।' षोडष बचन एवं संयत भाषा-प्रयोग 521. अणुवीयि णिट्ठाभासी समिताए संजते भासं भासेज्जा, तंजहाएगवयणं 1, दुवयणं 2, बहुवयणं 3, इत्थीवयणं 4, पुरिसवयणं 5, नपुंसगवयणं 6, 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 386 / 2. " णिठ्ठाभासी' के बदले चूर्णिकार-निमासी' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं-"निश्चितभाषी निदृभासी, सम्यक संजते भाषेत, संकित: मण्णे त्ति, ण वा जाणामि।" निभासी-निश्चितभाषी, यानी निश्चित हो जाने पर ही कहने वाला / संयमी साधु सम्यक कहे। शंकित व्यक्ति निष्ठाभाषी नहीं होता। शंकित-अर्थात जानता हैं या नहीं जानता। इस प्रकार की शंका से ग्रस्त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org