SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 617
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 164 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध [2] यदि वह जीवजन्तु आदि से रहित है, तो भी बिना देखे-भाले न लौटाए। [3] लौटाने से पहले अच्छी तरह देख-भाल करके, झाड़-पोंछकर, सूर्य की धूप देकर साफ करके ठीक हालत में लौटाए।' इन तीनों प्रकार के विवेक के पीछे अहिंसा, संयम और साधु के प्रति श्रद्धा-स्थायित्व का दृष्टिकोण है। पच्चप्पिणित्तए आदि पदों का अर्थ--पच्चप्पिणित्तए-प्रत्यर्पण करना, वापस सोंपना, लौटाना / आताविय= सूर्य के आतप में आतापित [गर्म] करके, विणिझुणिय -- झाड़कर, यतनापूर्वक हिलाकर। . उच्चार-प्रस्त्रवण-प्रतिलेखना 456. से भिक्खू वा 2 समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे वा पुत्वामेव पण्णस्स उच्चार-पासवणभूमि पडिलेहेज्जा / केवली बूया-आयाणमेयं / / अपडिलेहियाए उच्चार-पासवणभूमीए, भिक्खू वा 2 रातो वा वियाले वा उच्चारपासवणं परिट्ठवेमाणे पयलेज्ज वा पवडेज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा हत्थं वा पायं वा जाव लूसेज्जा पाणाणि वा 4 जाव ववरोएज्जा। अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा 4 जं पुवामेव पण्णस्स उच्चार-पासवणभूमि पडिलेहेज्जा। 456. जो साधु या साध्वी जंघादिबल क्षीण होने के कारण स्थिरवास कर रहा हो, या उपाश्रय में मासकल्पादि से रहा हुआ हो, अथवा ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ उपाश्रय में आकर ठहरा हो, उस प्रज्ञावान् साधु को चाहिए कि वह पहले ही उसके परिपार्श्व में उच्चारप्रस्रवण-विसर्जन (मल-मूत्र त्याग) की भूमि को अच्छी तरह देखभाल ले / केवली भगवान् ने कहा है--यह अप्रतिलेखित [बिना देखी भाली] उच्चार-प्रस्रवणभूमि कर्मबन्ध का कारण है। __ कारण यह है कि वैसी (अप्रतिलेखित) भूमि में कोई भी साधु या साध्वी रात्रि में या विकाल में मल-मूत्रादि का परिष्ठापन करता (परठता) हुआ फिसल सकता है या गिर सकता है। उसके पैर फिसलने या गिरने पर हाथ, पैर, सिर या शरीर के किसी अवयव को गहरी चोट लग सकती है, अथवा उसके गिर पड़ने से वहाँ स्थित प्राणी, भूत, जीव या सत्त्व को चोट लग सकती है, ये दब सकते हैं, यहाँ तक कि मर सकते हैं। इसी [महाहानि की सम्भावना के कारण तीर्थंकरादि आप्त पुरुषों ने पहले से ही भिक्षुओं के लिए यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है, कि साधु को उपाश्रय में ठहरने से पहले मल-मूत्र-परिष्ठापन करने हेतु भूमि की आवश्यक प्रति लेखना कर लेनी चाहिए। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 373 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy