________________ प्रथम अध्ययन : सप्तम उददेशक : सूत्र 56 सत्तमो उददेसओ सप्तम उद्देशक आत्म-तुला-विवेक 56. पनू एजस्स दुगुछणाए। आतंकदंसी अहियं ति गच्चा / जे अज्झत्थं जाणति से बहिया जाणति, जे बहिया जाणति से अज्मत्थं जाणति / एवं तुलमण्यसि / इह संतिगता दविया णावखंति जीविडं।' 56. साधनाशील पुरुष हिंसा में आतंक देखता है, उसे अहित मानता है। अतः वायुकायिक जीवों की हिंसा से निवृत्त होने में समर्थ होता है। जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य (संसार) को भी जानता है। जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है। __इस तुला (स्व-पर की तुलना) का अन्वेषण कर, चिन्तन कर ! इस (जिन शासन में) जो शान्ति प्राप्त--- (कषाय जिनके उपशान्त हो गये हैं) और दयाहृदय वाले (द्रविक) मुनि हैं, वे जीव-हिंसा करके जीना नहीं चाहते। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में वायुकायिक जीवों की हिंसा-निषेध का वर्णन है। एज का अर्थ है वायु, पवन / वायुकायिक जीवों की हिंसा निवृत्ति के लिए 'दुगुञ्छा'- जुगुप्सा शब्द एक नया प्रयोग है / प्रागमों में प्रायः दुगुञ्छा' शब्द गर्दा, ग्लानि, लोक-निंदा, प्रवचन-हीलना एवं साध्वाचार की निंदा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। किन्तु यहाँ पर यह 'निवृत्ति' अर्थ का बोध कराता है। इस सूत्र में हिंसा-निवृत्ति के तीन विशेष हेतु/पालम्बन बताये हैं / 1 आतंक-दर्शन-हिसा से होने वाले कष्ट/भय उपद्रव एवं पारलौकिक दुःख आदि को अागमवाणी तथा प्रात्म-अनुभव से देखना। 2. अहित-चिंतन--हिंसा से आत्मा का अहित होता है, ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि की उपलब्धि दुर्लभ होती है, आदि को जानना समझना। 3. आत्म-तुलना अपनी सुख-दुःख की वृत्तियों के साथ अन्य जीवों की तुलना करना। जैसे मुझे सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है, वैसे ही दूसरों को सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है / यह ग्रात्म-तुलना या प्रात्मौपम्य की भावना है। अहिंसा का पालन भी अंधान करण वृत्ति से अथवा मात्र पारम्परिक नहीं होना चाहिए. किन्तु ज्ञान और करुणापूर्वक होना चाहिए। जीव मात्र को अपनी आत्मा के समान समझना, प्रत्येक जीव के कष्ट को स्वयं का कष्ट समझना तथा उनकी हिंसा करने से सिर्फ उन्हें ही नहीं, स्वयं को भी कष्ट/भय तथा उपद्रव होगा, ज्ञान-दर्शन-चारित्र को हानि होगी और 1 प्राचाग (मुनि जम्बूविजय जी) टिपगी पृ. 14 चूणी पीयितु', बीजिऊं... इति पाठान्तगै / "तानियटनाहि गानं बाहिरं बावि पोमानं ण खनि वीयितु / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org