________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कम्म अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों की हिंसा करते है। कुछ किसी प्रयोजन-वश, कुछ निष्प्रयोजन/व्यर्थ ही जीवों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति (इन्होंने मेरे स्वजनादि की) हिंसा की, इस कारण (प्रतिशोध की भावना से) हिंसा करते हैं। कुछ व्यक्ति (यह मेरे स्वजन आदि की) हिमा करता है, इस कारण (प्रतीकार की भावना से) हिंसा करते हैं। . कुछ व्यक्ति (यह मेरे स्वजनादि को हिंसा करेगा) इस कारण (भावी आतंक भय की संभावना से) हिंसा करते हैं / 53. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिष्णाया भवंति / एल्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति / 53. जो सकायिक जीवों की हिंसा करता है, वह इन प्रारंभ (प्रारंभ जन्नत कुपरिणामों) से अनजान ही रहता है। जो त्रसकायिक जीवों की हिंसा नहीं करता है, वह इन आरंभों से सुपरिचित मुक्त रहता है। . .. 54. तं परिण्णाय मेधावी व सयं तसकायसत्थं समारभेज्जा, वडग्णेहि तसकायसत्थं समारभावेज्जा, वऽण्णे तसकायसत्थं समारभंते समणुजाणेज्जा। 54. यह जानकर बुद्धिमान् मनुष्य स्वयं त्रसकाय-शस्त्र का समारंभ न करे,. दूसरों से समारंभ न करवाए, समारंभ करने वालों का अनुमोदन भी न करे / 55. जस्सेते तसकायसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिणातकम्मे त्ति बेमि / / छट्ठो उद्देसओ समतो।। 55. जिसने त्रसकाय-सम्बन्धी समारंभों (हिंसा के हेतुनों उपकरणों/कुपरिणामों) को जान लिया, वही परिज्ञातकर्मा (हिंसा-त्यागी) मुनि होता है। ॥छठा उद्देशक समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org