________________ 31 प्रथम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 50-52 51. तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता-इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदन-मागमपूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतु से सयमेव तसकायसत्थं समारंभति, अण्णेहि वा तसकायसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा तसकायसत्थं समारंभमाणे समाजामति / तं से अहिताए, तं से अबोषीए / 51. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा विवेक का निरूपण किया है। कोई मनुष्य इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान, पूजा के लिए, जन्म-मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं भी त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है तथा हिंसा करते हुए का अनुमोदन भी करता है / यह हिंसा उसके अहित के लिए होती है / अबोधि के लिए होती है। प्रमकाय-हिंसा के विविध हेत 52. से तं संबुज्ममाणे आयाणीयं समुठ्ठाए। सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं गातं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए। इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि तसकायकम्मसमारंभेणं तसकायसत्यं समारंभमाणे अग्ण अगगरूवे पाणे विहिंसति / से बेमि अप्पेगे अच्चाए वर्षेति. अप्पेगे अजिणाए वधेति, अप्पेगे मंसाए वर्षेति; अप्पेगे सोणिताए वति, अप्पेगे हिययाए वर्षेति एवं पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए वंताए दाढाए नहाए हारुगोए अदिए अट्टिमिजाए अट्टाए अणट्टाए। अप्पेगे हिसिसु मे त्ति वा, अप्पेगे हिसंति वा, अप्पेगे हिसिस्संति वा णे वर्षेति / 52. वह संयमी, उस हिंसा को हिंसा के कुपरिणामों को सम्यक्प्रकार से समझते हुए संयम में तत्पर हो जावे! भगवान् से या गृहत्यागी श्रमणों के समीप सुनकर कुछ मनुष्य बह जान लेते हैं कि यह हिंसा ग्रन्थि है, यह मृत्यु है, यह मोह है, यह नरक है / फिर भी मनुष्य इस हिंसा में आसक्त होता है। वह नाना प्रकार के शस्त्रों से त्रसकायिक जीवों का समारंभ करता है। प्रसकाय का समारंभ करता हुया अन्य अनेक प्रकार के जीवों का भी समारंभ/हिंसा करता है। मैं कहता हूँ---- कुछ मनुष्य अर्चा (देवता की बलि या शरीर के शृगार) के लिए जीव हिंसा करते हैं / कुछ मनुष्य चर्म के लिए, मांस, रक्त, हृदय (कलेजा) पित्त, चर्बी, पंख, पूछ, केश, सींग, विषाण (सुअर का दांत,) दांत, दाढ़, नख, स्नायु, अस्थि (हड्डी) और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org