________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध * (मोक्ष-साधना के लिए उत्थित होकर) भ्रष्ट होने वाला अज्ञानी साधक गर्भ आदि (दुःख-चक्र) में फँस जाता है। इस आर्हत् शासन में यह कहा जाता है-रूप (तथा रसादि) में एवं हिंसा (उपलक्षण से असत्यादि) में (आसक्त होने वाला उत्थित होकर भी पुनः पतित हो जाता है)। केवल वही एक मुनि मोक्षपथ पर अभ्यस्त (प्रारूढ़) रहता है, जो (विषयकषायादि के वशीभूत एवं हिंसादि में प्रवृत्त) लोक का अन्यथा (भिन्नदृष्टि से) उत्प्रेक्षण (गहराई से अनुप्रेक्षण) करता रहा है अथवा जो (कषाय-विषयादि) लोक की उपेक्षा करता रहता है। 160. इस प्रकार कर्म (और उसके कारण) को सम्यक् प्रकार जानकर वह (साधक) सब प्रकार से (किसी जीव की) हिंसा नहीं करता, (शुद्ध) संयम का आचरण करता है, (असंयम-कर्मों या अकार्य में प्रवृत्त होने पर) धृष्टता नहीं करता। __ प्रत्येक प्राणी का सुख अपना-अपना (प्रिय) होता है, यह देखता हुमा (वह किसी की हिंसा न करे)। __ मुनि समस्त लोक (सभी क्षेत्रों) में कुछ भी (शुभ या अशुभ) प्रारम्भ (हिंसा) तथा प्रशंसा का अभिलाषी होकर न करे / मुनि अपने एकमात्र लक्ष्य-मोक्ष की ओर मुख करके (चले); वह (मोक्षमार्ग से) विपरीत दिशाओं को तेजी से पार कर जाए, (शरीरादि पदार्थों के प्रति) विरक्त ... (ममत्व-रहित) होकर चले, स्त्रियों के प्रति अरत (अनासक्त) रहे / संयमधनी मुनि के लिए सर्व समन्वागत प्रज्ञारूप (सम्पूर्णसत्य-प्रज्ञात्मक) अन्तःकरण से पापकर्म प्रकरणीय है, अत: साधक उनका अन्वेषण न करे / विवेचन–'इमेण चेव जुमाहि"जुद्धारिई खलु दुल्लभं'- साधना के पूर्वोक्त पाठ मूलमंत्रों को सुनकर कुछ शिष्यों ने जिज्ञासा प्रस्तुत की--'भंते ! भेद-विज्ञान की भावना के साथ हम रत्नत्रय की साधना में पराक्रम करते रहते हैं, अपनी शक्ति जरा भी नहीं छिपाते, आपके उपदेशानुसार हम साधना में जुट गये लेकिन अभी तक हमारे समस्त कर्ममलों का क्षय नहीं हो सका, अत: समस्त कर्ममलों से रहित होने का असाधारण उपाय बताइए।' इस पर भगवान् ने उनसे पूछा- 'क्या तुम और अधिक पराक्रम कर सकोगे ?' वे बोले-'अधिक तो क्या बताएँ, लौकिक भाषा में सिंह के साथ भी हम युद्ध कर सकते हैं, शत्रुओं के साथ जूझना और पछाड़ना तो हमारे बाँए हाथ का खेल है।' इस पर भगवान् ने कहा- 'वत्स! यहाँ इस प्रकार का बाह्य युद्ध नहीं करना है, यहाँ तो आन्तरिक युद्ध करना है / यहाँ तो स्थूल शरीर और कर्मों के साथ लड़ना है। यह औदारिक शरीर, जो इन्द्रियों और मन के शस्त्र लिए हुए है, विषय-सुपिपासु है और स्वेच्छाचारो बनकर तुम्हें नचा रहा है, इसके साथ युद्ध करो और उस कर्मशरीर के साथ लड़ो, जो वृत्तियों. के माध्यम से तुम्हें अपना दास बना रहा है, काम, क्रोध, मद, लोभ, मत्सर आदि सब कर्मशत्रु की सेना है, इसलिए तुम्हें कर्मशरीर और स्थल-शरीर के साथ आन्तरिक युद्ध करके कर्मों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org