________________ पंचम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 159-160 163 रात्रि के पिछले याम को अपररात्र कहते हैं / इन दोनों यामों में स्वाध्याय, ध्यान, ज्ञान-चर्चा या यात्मचिन्तन करते हुए अप्रमत्त रहना यतना है।' (5) शोल सम्प्रेक्षा-(१) महाव्रतों की साधना, (२)तीन (मन-वचन-काया की) गुप्तियाँ (सुरक्षा-स्थिरता), (3) पञ्चेन्द्रिय दम (संयम) और (4) कोधादि चार कषायों का निग्रह-ये चार प्रकार के शील हैं, चिन्तन की गहराइयों में उतर कर अपने में इनका सतत निरीक्षण करना शील-सम्प्रेक्षा है। (6) लोक में सारभूत परमतत्त्व (ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक मोक्ष) का श्रवण करना / (7) काम-रहित (इच्छाकाम और मदनकाम से रहित अकाम होना)। (8) झंझा (माया या लोभेच्छा) से रहित होना / इन अष्टविध उपायों का सहारा लेकर मुनि अपने मार्ग में सतत आगे बढ़ता रहे / अन्तर लोक का युद्ध 159. इमे ण चेव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेण बज्झतो? जुद्धारिहं खलु दुल्लभं / जहेत्थ कुसलेहि परिष्णाविवेगे भासिते / चुते हु बाले गम्भातिसु रज्जति / अस्सि चेतं पति रूवंसि वा छणंसि वा। से हु एगे संविद्धपहे। मुणो अण्णहा लोगमुवेहमाणे / 160. इति कम परिणाय सध्वसो से ण हिसति, संजमति, जो पगभति, .. उवेहमाणे पत्तेयं सातं, वण्णादेसी णारभे कंचणं सवलोए . एगप्पमुहे विदिसप्पतिष्णे णिविष्णचारी अरते पयासु / से वसुमं सव्वसमण्णागतपणाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावं कम्मं तं णो अपणेसी। 159. इसी (कर्म-शरीर) के साथ युद्ध कर, दूसरों के साथ युद्ध करने में तुझे क्या मिलेगा? (अन्तर-भाव) युद्ध के योग (साधन) अवश्य ही दुर्लभ हैं / __ जैसे कि तीर्थंकरों (मार्ग-दर्शन-कुशल) ने इस (भावयुद्ध) के परिज्ञा और विवेक (ये दो शस्त्र) बताए हैं। 1. दशवकालिक सूत्र में कहा है-- 'से पुज्वरत्तावररत्तकाले संपिक्खए अप्पगमप्पए / (चूलिका) 2611 -साधक पूर्वरात्रि एवं अपररात्रि में ध्यानस्थ होकर प्रात्मा से आत्मा का सम्यक निरीक्षण करे। 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 190 / 3. 'जुद्धारिहं' के बदले कहीं 'जुद्धारियं च दुल्लह पाठ है। इसका अर्थ वृत्तिकार ने किया है-युद्ध दो प्रकार के होते हैं-अनार्ययुद्ध और प्रार्ययुद्ध / तत्रानार्यसंग्रामयुद्ध', परीषहादि रिपुयुद्ध त्वार्य, तद्दुर्लभमेव तेन युद्धयस्व ।-अनार्ययुद्ध है शस्त्रास्त्रों से संग्राम करना, और परिषहादि शत्रों के साथ युद्ध करना आर्ययुद्ध है, वह दुर्लभ ही है / अतः परिषहादि के साथ प्रार्ययुद्ध करो। 4. 'संविद्धपहे' के बदले 'संविद्ध भये' पाठान्तर है। जिसका अर्थ है-जिसने भय को देख लिया है। 5. 'लोगमुवेहमाणे' के बदले चूणि में 'लोग उविक्खमाणे' पाठ है; जिसका अर्थ होता है-लोक की उपेक्षा या उत्प्रेक्षा (निरीक्षण) करता हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org