________________ 162 आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध (तीर्थंकर) ने कहा-मुनि आज्ञा में रुचि रखे, वह पण्डित है, अत: स्नेह-प्रासक्ति से दूर रहे / रात्रि के प्रथम और अन्तिम भाग में (स्वाध्याय और ध्यान में) यत्नवान् रहे अथवा संयम में प्रयत्नशील रहे, सदा शील का सम्प्रेक्षण-अनुशीलन करे (लोक में सारभूत तत्व-परमतत्त्व को) सुनकर काम और लोभेच्छा / माया (झझा) से मुक्त हो जाए। विवेचन-मुनिधर्म की स्थापना करते समय साधकों के जीवन में कई आरोह-अवरोह (चढ़ाव-उतार) पाते हैं, उसी के तीन विकल्प प्रस्तुत सूत्र पंक्ति में प्रस्तुत किये हैं / वृत्तिकार ने सिंहवृत्ति और शृगालवृत्ति की उपमा देकर समझाया है। इसके दो भंग (विकल्प) होते हैं-- (1) कोई साधक सिंहवृत्ति से निष्क्रमण करता (प्रवजित होता) है, और उसी वृत्ति पर अन्त तक टिका रहता है, वह 'पूर्वोत्थायी पश्चात् अनिपाती' है। (2) कोई सिंहवृत्ति से निष्क्रमण करता है, किन्तु बाद में शृगालवृत्ति वाला हो जाता है। यह 'पूर्वोत्थायी पश्वान्निपाती' नामक द्वितीय भंग है। पहले भंग के निदर्शन के रूप में गणधरों तथा धन्ना एवं शालिभद्र आदि मुनियों को लिया जा सकता है, जिन्होंने अन्त तक अपना जीवन तप, संयम में उत्थित के रूप में बिताया। दूसरे भंग के निदर्शन के रूप में नन्दिषण, कुण्डरीक आदि साधकों को प्रस्तुत कर सकते हैं, जो पहले तो बहुत ही उत्साह, तीव्र वैराग्य के साथ प्रव्रज्या के लिए उत्थित हुए, लेकिन बाद में मोहकर्म के उदय से संयमी जीवन में शिथिल और पतित हो गये थे। इसके दो भंग और होते हैं (3) जो पूर्व में उत्थित न हो, बाद में श्रद्धा से भी गिर जाय / इस भंग के निदर्शन के रूप में किसी श्रमणोपासक गृहस्थ को ले सकते हैं, जो मुनिधर्म के लिए तो तैयार नहीं हुआ, इतना ही नहीं, जीवन के विकट संकटापन्न क्षणों में सम्यग्दर्शन से भी गिर गया। (4) चौथा भंग है-जो न तो पूर्व उत्थित होता हैं, और न ही पश्चात्निपाती। इसके निदर्शन के रूप में बालतापसों को ले सकते हैं, जो मुनिधर्म में दीक्षित होने के लिए तैयार न हुए और जब उठे ही नहीं तो गिरने का सवाल ही कहाँ रहा / ' मुनि-धर्म के साधकों की उत्थित-पतित मनोदशा को जानकर भगवान् ने मुनि-धर्म में स्थिरता के लिए पाठ मूलमन्त्र बताए, जिनका इस सूत्र में उल्लेख है (1) साधक आज्ञाकांक्षी (प्राज्ञारुचि) हो, प्राज्ञा के दो अर्थ होते हैं-तीर्थकरों का उपदेश और तीर्थकर प्रतिपादित आगम / (2) पण्डित हो—सद्-असद् विवेकी हो। अथवा 'स पण्डितो यः करणैरखण्डितः / इस श्लोकार्ध के अनुसार इन्द्रियों एवं मन से पराजित न हो, अथवा 'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डित बुधाः' गीता की इस उक्ति के अनुसार जो ज्ञानरूपी अग्नि से अपने कर्मो को जला डालता हो, उसे ही तत्त्वज्ञों ने पण्डित कहा है / (3) अस्निह हो-स्निग्धता = प्रासक्ति से रहित हो / (4) पूर्व रात्रि और अपर रात्रि में यत्नवान रहना / रात्रि के प्रथम याम को पूर्वरात्र और 1. आचा० शीला दीका पत्रांक 1901 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org