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________________ 106. आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 124. अवरेण पुव्वं ण सरंति एगे किमस्स तीतं कि वाऽऽगमिस्सं / भासंति एगे इह माणया तु जमस्स तीतं तं आगमिस्सं // 11 // णातीतमण य आगमिस्सं अट्ठ णियच्छति तथागता उ / विधतकप्पे एताणुपस्सी णिज्झोसइत्ता। का अरती के आणंदे ? एत्थंपि अग्गहे चरे। सम्वं हासं परिच्चज्ज अल्लीणगुत्तो परिव्वए। 122. साधक (धर्मानुष्ठान की अपूर्व) सन्धि–वेला समझ कर (प्राणि-लोक को दुःख न पहुँचाए) अथवा प्रमाद करना उचित नहीं है / अपनी आत्मा के समान बाह्य-जगत (दूसरी आत्माओं) को देख ! (सभी जीवों को मेरे समान ही सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है) यह समझकर मुनि जीवों का हनन न करे और न दूसरों से घात कराए। जो परस्पर एक दूसरे की आशंका से, भय से, या दूसरे के सामने (उपस्थिति में) लज्जा के कारण पाप कर्म नहीं करता, तो क्या ऐसी स्थिति में उस (पाप कर्म न करने) का कारण मुनि होना है ? (नहीं) 123- इस स्थिति में (मुनि) समता की दृष्टि से पर्यालोचन (विचार) करके आत्मा को प्रसाद-उल्लास युक्त रखे / ज्ञानी मुनि अनन्य परम- (सर्वोच्च परम सत्य, संयम) के प्रति कदापि प्रमाद (उपेक्षा) न करे। वह साधक सदा आत्मगुप्त (इन्द्रिय और मन को वश में रखने वाला) और बीर (पराक्रमी) रहे, वह अपनी संयम-यात्रा का निर्वाह परिमित-(मात्रा के अनुसार) आहार से करे। वह साधक छोटे या बड़े रूपों-(दृश्यमान पदार्थों) के प्रति विरति धारण करे। 1. यहाँ चूर्णिकार का अभिमल पाठ यों है किह से अतीतं, किह आगमिस्सं ? जह से अतीतं, तह आगमिस्सं / इन पंक्तियों का अर्थ प्रायः एक-सा है। 2. इसके बदले चूणि में पाठ है—'एस्थ पि अगरहे चरे' / इसका अर्थ इस प्रकार किया है-'रागवोसेहि अगरहो, तन्निमित्तं जह ण परहिज्जति ण रज्जति दुस्सिति वा' -~-ग्रहण- (कर्मबन्धन) होता है राम और द्वेष से / राग-द्वेष को ग्रहण न करने पर अ-ग्रह हो जाएगा / अर्थात् मुनि विषयादि के निमित्त राग-द्वेष का ग्रहण नहीं करता--न राग से रक्त होता है, न द्वेष से द्विष्ट / 3. 'अल्लीणगुत्तो' के स्थान पर 'आलोणगुत्ते' पाठ भी क्वचिद मिलता है। चूर्णिकार ने 'अल्लीणगुत्तो' का अर्थ इस प्रकार किया है-धम्म आयरियं वा अल्लोणो तिविहाए गुत्तीए गुत्तो-धर्म में तथा प्राचार्य में इन्द्रियादि को समेट कर लीन है और तीन गुप्तियों से गुप्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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