________________ तृतीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 124 107 समस्त प्राणियों (नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति के जीवों) की गति और आगति को भली-भांति जानकर जो दोनों अन्तों (राग और द्वष) से दूर रहता है, वह समस्त लोक में किसी से (कहीं भी) छेदा नहीं जाता, भेदा नहीं जाता, जलाया नहीं जाता और मारा नहीं जाता। 124. कुछ (मूढमति) पुरुष भविष्यकाल के साथ पूर्वकाल (अतीत) का स्मरण नहीं करते। वे इसकी चिन्ता नहीं करते कि इसका प्रतीत क्या था, भविष्य क्या होगा? कछ (मिथ्याज्ञानी) मानव यों कह देते हैं कि जो (जैसा) इसका प्रतीत था. वही (वैसा ही) इसका भविष्य होगा। किन्तु तथागत (सर्वज्ञ) (राग-द्वेष के अभाव के कारण) न अतीत के (विषय-भोगादि रूप) अर्थ का स्मरण करते हैं और न ही भविष्य के (दिव्यांगना-संगादि वैषयिक सुख) अर्थ का चिन्तन करते हैं। (जिसने कर्मों को विविध प्रकार से धूत-कम्पित कर दिया है, ऐसे) विधूत के समान कल्प-आचार वाला महर्षि इन्हीं (तथागतों) के दर्शन का अनुगामी होता है, अथवा वह क्षपक महर्षि वर्तमान का अनुदर्शी हो (पूर्व संचित) कर्मों का शोषण करके क्षीण कर देता है। उस (धूत-कल्प) योगी के लिए भला क्या अरति है और क्या प्रानन्द है ? वह इस विषय में (अरति और आनन्द के विषय में) बिलकूल ग्रहण रहित (अग्रहकिसी प्रकार की पकड़ से दूर) होकर विचरण करे। वह सभी प्रकार के हास्य आदि (प्रमादों) का त्याग करके इन्द्रियनिग्रह तथा मन-वचन-काया को तीन गुप्तियों से गुप्त (नियंत्रित) करते हुए विचरण करे / विवेचन-सूत्र 122 से 124 तक सब में प्रात्मा के विकास, प्रात्म-समता, आत्म-शुद्धि, आत्म-प्रसन्नता, आत्म-जागृति, आत्म-रक्षा, पराक्रम, विषयों से विरक्ति, राग-द्वेष से दूर रहकर प्रात्म-रक्षण, प्रात्मा का अतीत और भविष्य, कर्म से मुक्ति, आत्मा की मित्रता, आत्मनिग्रह प्रादि आध्यात्मिक आरोहण का स्वर गूज रहा है। __ संधि लोगस्स जाणित्ता-यह सूत्र बहुत ही गहन और अर्थ गम्भीर है / वृत्तिकार ने संधि के संदर्भ में इसकी व्याख्या अनेक प्रकार से की है (1) उदोर्ण दर्शन मोहनीय के क्षय तथा शेष के उपशान्त होने से प्राप्त सम्यक्त्व भावसन्धि / (2) विशिष्ट क्षायोपशमिक भाव प्राप्त होने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति रूप भाव-सन्धि / (3) चारित्र मोहनीय के क्षयोपशम से प्राप्त सम्यक् चारित्र रूप भाव-सन्धि / (4) सन्धि का अर्थ—सन्धान, मिलन या जुड़ना है / कर्मोदयवश ज्ञान-दर्शन-चारित्र के टूटते हुए अध्यवसाय का पुनः जुड़ना या मिलना भाव-सन्धि है / (5) धर्मानुष्ठान का अवसर भी सन्धि कहलाता है। आध्यात्मिक (क्षायोपशमिकादि भाव) सन्धि को जानकर प्रमाद करना श्रेयस्कर नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org