________________ 108 मायासंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध है, आध्यात्मिक लोक के तीन स्तम्भों-ज्ञान-दर्शन-चारित्र का टूटने से सतत रक्षण करना चाहिए / जैसे कारागार में बन्द कैदी के लिए दीवार में हुए छेद या बेड़ी को टूटी हुई जानकर प्रमाद करना अच्छा नहीं होता, वैसे ही आध्यात्मिक लोक में मुमुक्षु के लिए भी इस जीवन को, मोह-कारागार की दीवार का या बन्धन का छिद्र जानकर क्षणभर भी पुत्र, स्त्री या संसार सुख के व्यामोह रूप प्रमाद में फंसे रहना श्रेयस्कर नहीं होता।' 'आयओ बहिया पास' का तात्पर्य है-तू अध्यात्मलोक को अपनी आत्मा तक ही सीमित मत समझ / अपनी आत्मा का ही सुख-दुःख मत देख / अपनी आत्मा से बाहर लोक में व्याप्त समस्त आत्माओं को देख / वे भी तेरे समान हैं, उन्हें भी सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है। इस प्रकार प्रात्म-समता को दृष्टि प्राप्त कर / / इसी बोधवाक्य की फलश्रुति अगले वाक्य-'तम्हा ण हंता ण विघातए' में दे दी है कि आत्मौपम्यभाव से सभी के दुःख-सुख को अपने समान जानकर किसी जीव का न तो स्वयं घात करे, न दूसरों से कराए। अध्यात्मज्ञानी मुनि पाप कर्म का त्याग केवल काया से या वचन से ही नहीं करता, मन से भी करता है। ऐसी स्थिति में वह अपने त्याग के प्रति सतत वफादार रहता है / जो व्यक्ति किसी दूसरे के लिहाज, दबाव या भय से अथवा उनके देखने के कारण पापकर्म नहीं करता, किन्तु परोक्ष में छिपकर करता है, वह अपने त्याग के प्रति वफादार कहाँ रहा ? यही शंका इस सूत्र (जमिण अण्णमणं "सिया?) में उठायी गई है। इसमें से ध्वनि यही निकलती है कि जो व्यक्ति व्यवहार-बुद्धि से प्रेरित होकर दूसरों के भय, दबाव या देखते हुए पापकर्म नहीं करता, यह उसका सच्चा त्याग नहीं, क्योंकि उसके अन्तःकरण में पापकर्म-त्याग की प्रेरणा जगी नहीं है / इसलिए वह निश्चयदृष्टि से मुनि नहीं है, मात्र व्यवहारदृष्टि से वह मुनि कहलाता है। उसके पापकर्म-त्याग में उसका मुनित्व कारण नहीं है। इसी सूत्र के सन्दर्भ में अगले सूत्र में समता के माध्यम से आत्म-प्रसन्नता की प्रेरणा दी गई है-इसका तात्पर्य यह है कि साधक मन-वचन-काया की समता-एकरूपता को देखे / दूसरों के देखते हुए पापकर्म न करने की तरह परोक्ष में भी न करना, समता है। इस प्रकार की समता से प्रेरित होकर जो साधक समय—(आत्मा या सिद्धान्त) के प्रति वफादार रहते हुए लज्जा, भय आदि से भी पापकर्म नहीं करता, तप-त्याग एवं संयम का परिपालन करता है, उसमें उसका मुनित्व कारण हो जाता है / 'समय' के यहां तीन अर्थ फलित होते हैं / समता, आत्मा और सिद्धान्त / इन तीनों के परिप्रेक्ष्य में-- इन तीनों को केन्द्र में रखकर-साधक को पापकर्म-त्याग की प्रेरणा यहाँ दी गई है। इसी से प्रात्मा प्रसन्न हो सकती है अर्थात् आत्मिक प्रसन्नता-उल्लास का अनुभव हो सकता है / जिसके लिए यहाँ कहा गया है—'अप्पाणं विप्पसादए।' 2. प्राचा० टीका पत्र 150 1 प्राचा० टीका पत्र 149 3. प्राचा० टीका पत्र 150 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org