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________________ तृतीय अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र 124 109 'आगति गति परिणाय' का तात्पर्य यह है कि चार गतियां हैं, उनमें से किस गति का जीव कौन-कौन सी गति में आ सकता है और किस गति से कहाँ-कहाँ जा सकता है ? इसका ऊहापोह करना चाहिए। जैसे तिर्यंच और मनुष्य की गति और गति (गमन) चारों गतियों में हो सकती है, किन्तु देव और नारक को प्रागति-गति तिर्यंच और मनुष्य इन दो ही गतियों से हो सकती है। किन्तु मनुष्य इन चारों गतियों में गमना गमन की प्रक्रिया को तोड़कर पंचम गति-मोक्षगति में भी जा सकता है; जहाँ से लौटकर वह अन्य किसी गति में नहीं जाता। उसका मूल कारण दो अन्तों-राग-द्वष का लोप, नाश करना है। फिर उस विशुद्ध मुक्त प्रात्मा का लोक में कहीं भी छेदन-भेदनादि नहीं होता। १२४वें सूत्र की व्याख्या वृत्तिकार ने दार्शनिक, भौतिक और आध्यात्मिक साधना, इन तीनों दृष्टियों से की है। कुछ दार्शनिकों का मत है--भविष्य के साथ अतीत की स्मृति नहीं करना चाहिए। वे भविष्य और अतीत में कार्य-कारण भाव नहीं मानते। कुछ दार्शनिकों का मन्तव्य है-जैसा जिस जीव का अतीत था, वैसा ही उसका भविष्य होगा। इनमें चिन्ता करने की क्या जरूरत है ? तथागत (सर्वज्ञ) अतीत और भविष्य की चिन्ता नहीं करते, वे केवल वर्तमान को ही देखते हैं। मोह और अज्ञान से प्रावृत बुद्धि वाले कुछ लोग कहते हैं कि यदि जीब के नरक आदि जन्मों में प्राप्त या उस जन्म में बालक, कुमार आदि वय में प्राप्त दुःखादि का विचार-स्मरण करें या भविष्य में इस सुखाभिलाषी जीव को क्या-क्या दुःख पाएँगे? इसका स्मरण-चिन्तन करेंगे तब तो वर्तमान में सांसारिक सुखों का उपभोग ही नहीं कर पाएँगे / जैसा कि वे कहते हैं केण ममेत्युप्पत्ती कहं इओ तह पुणो वि गंतव्वं / जो एत्तियं वि चितइ इत्यं सो को न निविण्णो / भूतकाल के किस कर्म के कारण मेरी यहाँ उत्पत्ति हुई ? यहाँ से मरकर मैं कहाँ जाऊँगा? जो इतना भी इस विषय में चिन्तन कर लेता है, वह संसार से उदासीन हो जाएगा, संसार के सुखों में उसे अरुचि हो जाएगी। ___ कई मिथ्याज्ञानी कहते हैं - "अतीत और अनागत के विषय में क्या विचार करना है ? इस प्राणी का जैसा भी अतोत-स्त्री, पुरुष, नपुंसक, सुभग-दुर्भग, सुखी-दुःखो, कुत्ता, विल्ली, गाय, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि रूप रहा है, वही इस जन्म में प्राप्त और अनुभूत हुआ है और इस जन्म (वर्तमान) में जो रूप (इनमें से) प्राप्त हुआ है, वही रूप आगामी जन्म (भविष्य) में प्राप्त होगा, इसमें पूछना ही क्या है ? साधना करने को भी क्या जरूरत है ?" __ आध्यात्मिक दृष्टि वाले साधक पूर्व अनुभूत विषय-सुखोपभोग आदि का स्मरण नहीं करते और न भविष्य के लिए विषय-सुख प्राप्ति का निदान (कामना मूलक संकल्प) करते हैं, क्योंकि वे राग-द्वेष से मुक्त हैं। 1. प्राचा० टीका पत्र 150 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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