________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतत्कन्ध तात्पर्य यह है-राग-द्वेष रहित होने से ज्ञानी जन न तो अतीत कालीन विषय-सुखों के उपभोगादि का स्मरण करते हैं और न ही भविष्य में विषय-सुखादि की प्राप्ति का चिन्तन करते हैं। मोहोदयग्रस्त व्यक्ति ही अतीत और अनागत के विषय-सुखों का चिन्तन-स्मरण करते हैं।' विधूतकप्पे एताणुपस्सी' का अर्थ है--जिन्होंने अष्टविध कर्मों को नष्ट (विधुत) कर दिया है, वे 'विधत' कहलाते हैं। जिस साधक ने ऐसे विधूतों का कल्प–प्राचार ग्रहण किया है, वह इन वीतराग सर्वज्ञों का अनुदर्शी होता है। उसकी दृष्टि भी इन्ही के अनुरूप होती है / अरति, इष्ट वस्तु के प्राप्त न होने या वियोग होने से होती है और रति (आनन्द) इष्टप्राप्ति होने से / परन्तु जिस साधक का चित्त धर्म व शुक्लध्यान में रत है, जिसे प्रात्म-ध्यान में ही प्रात्मरति-आत्म-संतुष्टि या प्रात्मानन्द की प्राप्ति हो चुकी है, उसे इस बाह्य परति या रति (ग्रानन्द) से क्या मतलब है ? इसलिए साधक को प्रेरणा दी गयी है—'एत्थंपि अग्गहे घरे' अर्थात आध्यात्मिक जीवन में भी अरति-रति (शोक या हर्ष) के मूल राग-द्वेष का ग्रहण न करता हुआ विचरण करे / मित्र-अमित्र-विवेक 125. पुरिसा! तुममेव तुम मित्त, कि बहिया मित्तमिच्छसि ? जं जाणेज्जा उच्चालयितं तं जाणेज्जा दूरालयितं, जं जाणेज्जा दूरालइतं तं जाणेज्जा उच्चालइतं। 126. पुरिसा! अताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि / 125. हे पुरुष (प्रात्मन्) ! तू ही तेरा मित्र है, फिर बाहर, अपने से भिन्न मित्र क्यों हूँढ़ रहा है ? __जिसे तुम (अध्यात्म की) उच्च भूमिका पर स्थित समझते हो, उसका घर (स्थान) अत्यन्त दूर (सर्व आसक्तियों से दूर या मोक्षमार्ग में) समझो, जिसे अत्यन्त दूर (मोक्ष मार्ग में स्थित) समझते हो, उसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझो। 126. हे पुरुष ! अपना (आत्मा का) ही निग्रह कर। इसी विधि से तू दुःख से (कर्म से) मुक्ति प्राप्त कर सकेगा। सत्य में समुत्थान 127. पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि / सच्चस्स आणाए से उवट्ठिएउमेधावी मारं तरति। सहिते धम्ममादाय सेयं समणुपस्सति / दुहतो जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए, जंसि एगे पमादेति / 2. प्राचा• टीका पत्र 152 / 1. प्राचा० टीका पत्र 151 / 3. 'उबट्ठिए से मेहावी'-यह पाठान्तर भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org