SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध होता है / वह पाप कर्म के मूल कारण-राग-द्वेष को अन्तःकरण में आने नहीं देता, तब उससे पाप कर्म होगा ही कैसे ? __ 'सम्मतदंसी' का एक रूप 'सम्यक्त्वदर्शी' भी होता है। सम्यक्त्वदर्शी पापाचरण नहीं करता, इसका रहस्य यही है कि पाप कर्म की उत्पत्ति, उसके कटु परिणाम और वस्तु के यथार्थ स्वरूप का सम्यग् ज्ञान जिसे हो जाता है, वह सत्यदृष्टा असम्यक् (पाप का) आचरण कर ही कैसे सकता है ? 113 वें सूत्र में पाप कर्मों का संचय करने वाले की वृत्ति, प्रवृत्ति और परिणति (फल) का दिग्दर्शन कराया गया है। 'पाश' का अर्थ बंधन है। उसके दो प्रकार हैं-द्रव्यबन्धन और भावबन्धन / यहाँ मुख्य भावबन्धन है। भाव बन्धन राग, मोह, स्नेह, आसक्ति, ममत्व आदि हैं / ये ही साधक को जन्म-मरण के जाल में फंसाने वाले पाश हैं। 'आरंमजीवी उभयाणुपस्सी' पद में प्रारम्भ से महारम्भ और उसका कारण महापरिग्रह दोनों का ग्रहण हो जाता है। मनुष्यों-मयों के साथ पाश-बंधन को तोड़ने का कारण यहाँ प्रारंभजीवी आदि पदों से बताया गया है। जो प्रारंभजीवी होता है, वह उभयलोक (इहलोकपरलोक) को या उभय (शरीर और मन दोनों) को ही देख पाता है, उससे ऊपर उठकर नहीं देखता / अथवा 'उ' को पृथक् मानने से 'भयाणपस्सी' पाठ भी होता है, जिसका अर्थ होता हैमहारम्भ-महापरिग्रह के कारण वह पुनः-पुन: नरकादि के या इस लोक के भयों का दर्शन (अनुभव) किया करता है। __ चार पुरुषार्थों में कामरूप पुरुषार्थ जन साध्य होता है, तब उसका साधन बनता हैअर्थ / इसलिए काम-भोगों की आसक्ति मनुष्य को विविध उपभोग्य धनादि अर्थों-पदार्थों के संग्रह के लिए प्रेरित करती है / वह प्रासक्ति-महारंभ-महापरिग्रह का मूल प्रेरक तन्व है। _ 'सपिच्चमाणा पुणरेंति गम्भ' में बताया है-हिंसा, झूठ, चोरी, काम-वासना, परिग्रह आदि पाप या कर्म की जड़ें हैं। उन्हें जो पापी लगातार सींचते रहते हैं, वे बार-बार विविध गतियों और योनियों में जन्म लेते रहते हैं। 114 वें सूत्र में प्राणियों के वध आदि के निमित्त विनोद और उससे होने वाली वैर-वृद्धि का संकेत किया गया है। कई महारंभी-महापरिग्रही मनुष्य दूसरों को मारकर, सताकर, जलाशय में डुबाकर, कोड़ों आदि से पीटकर या सिंह आदि हिंस्र पशुओं के समक्ष मनुष्य को मरवाने के लिए छोड़कर अथवा यज्ञादि में निर्दोष पशु-पक्षियों की बलि देकर या उनका शिकार करके अथवा उनकी हत्या करके कर मनोरंजन करते हैं। इसी प्रकार कई लोग झूठ बोलकर, चोरी करके 1. आवश्यक नियुक्ति (गा० 1046) में सम्यक्त्व को समत्व का पर्यायवाची बताया है "समया संमत-पसत्य-संति-सिव-हिय-सहं अणिदं च / अदुगुछि अमगरहिअं अणवज्जमिमेऽवि एगट्ठा / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy