SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 517
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Ex आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध प्रति घणा, प्रवचन के प्रति हीलना हो सकती है, तथा स्नान, शौच आदि करने के स्थान के सामने या द्वार पर खड़े होने से साधु के देखते शौचादि क्रिया निःशंक होकर गृहस्थ न कर सकेगा, विरोध और विद्वेष तथा अपमान का भाव भी साधु के प्रति जग सकता है। गवाक्ष, दीवार की सन्धि आदि स्थानों की ओर अंगुलि आदि से संकेत करके देखने-दिखाने में किसी वस्तु के चुराये या नष्ट हो जाने पर साधु के प्रति शंका हो सकती है। उसके चरित्र पर भी संदेह उत्पन्न हो सकता है। इसी प्रकार अंगुलि से इशारा करके, धमकी दिखाकर या खुजलाकर अथवा प्रशंसा करके आहार लेना भो भय, दैन्य और लोलुपता आदि का द्योतक है। इन सब एषणा-दोषों से बचना चाहिए। 'दगच्छड्डणमत्तए' आदि पदों का अर्थ-दगछडणमत्तए = झूठे बर्तन आदि धोया हुआ पानी डालने के स्थान में, चंदणिउयए हाथ-मुह धोने या पीने का पानी बहाने के स्थान में, बच्चस्स मूत्रालय या शौचालय के, आलोयं=आलोक-प्रकाश-स्थान-बारी, झरोखा या रोशनदान आदि को थिग्गलं =मरम्मत की हुई दीवार आदि को. संधि-दीवार को सन्धि को, उण्णमिय=ऊंचा करके. ओणमय =नीचे झुकाकर, णिज्माएज्जा=देखे-दिखाये, उक्खुलंपिय= खुजलाकर, वंचिय=स्तुति या प्रशंसा करके, सज्जिय-धमकी या डर दिखाकर / संसृष्ट-असंसृष्ट आहार-ग्रहण का निषेध-विधान सूत्र 360 के उत्तरार्ध में हाथ, मिट्टी का बर्तन, कुड़छी तथा कांसे आदि का बर्तन, सचित्त जल आदि से संसृष्ट हो तो आहार ग्रहण करने का निषेध और इनसे असंसृष्ट हाथ आदि से ग्रहण करने का विधान किया गया है। संक्षेप में सचित्त वस्तु से संसृष्ट आहार लेने का निषेध तथा उससे असंसृष्ट वस्तु लेने का विधान है। निशीथ भाष्य की चूर्णि में संसृष्ट के 18 प्रकार बतलाए गए हैं(१) पूर्वकर्म (साधु के आहार लेने से पूर्व हाथ आदि धोकर देना)। (2) पश्चात्कर्म (साधु के आहार लेने के पश्चात् हाथ आदि धोना)। (3) उदका (बूंदें टपक रही हों, इस प्रकार से गीले हाथ आदि)। (4) सस्निग्ध* (केवल गीले-से हाथ किन्तु बूंदें न टपकती हों आदि)। (5) सचित्त मिट्टी (मिट्टी का ढेला या कीचड़)। 1 (क) टीका पत्र 340 / (ख) तुलना कीजिए-आलोयं थिग्गलं दारं संधि-वगभवणाणि य / चरंतो न विणिज्झाए. संकद्राणं विवज्जए। --दशव 4115 टीका पत्र 341 से। 3 पुरेकम्मं नाम जं साधूण दळूण हत्थं भायण धोवइ..."। —दशव० जिनदास चूणि पृ० 178 4 उदकाोनाम गलदुदबिन्दुयुक्तः - दशवै० हारिभद्रीय टीका पृ० 170 5 जंउदगेण किंचि णि ण प्रण गलति तं संसिणि। -~-अगस्त्य चूणि पृ० 108 6 मट्टियाकडउमट्टिया चिक्खलो -जि० चू० पृ० 179 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy