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________________ 184 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रु तस्कन्ध पूर्ण हो रही है।" इस प्रकार से मन एवं वचन को आगे-पीछे न करके साधु-विचरण करे। वह शरीर और उपकरणादि पर मूर्छा न करके तथा अपनी लेश्या को संयमबाह्य प्रवृत्ति में न लगाता हुआ अपनी आत्मा को एकत्व भाव में लीन करके समाधि में स्थित अपने शरीर-उपकरण आदि का व्युत्सर्ग करे। इस प्रकार नौका के द्वारा पार करने योग्य जल को पार करने के बाद जिस प्रकार तीर्थकरों ने विधि बताई है. उस विधि का विशिष्ट अध्यवसायपूर्वक पालन करता हुआ विचरण करे। . विवेचन-नौकारोहण : विघ्न-बाधाएं और समाधान-जहाँ इतना जल हो कि पैरों से चल कर मार्ग पार नहीं किया जा सकता, वहां साधु को जलयान में बैठकर उस मार्ग को पार करने का शास्त्रकार ने विधान किया है। साथ ही यह भी बताया है कि साधु किस प्रकार की नौका में, किस विधि से चढ़े ? नौका में बैठने के बाद नाविक द्वारा नौका को रस्सी से बांधने, डांड आदि से चलाने, नौका में भरे हुए पानी को बाहर निकालने, छिद्र बंद करने आदि सावध कार्यों के करने का कहे जाने पर साधु न उन्हें स्वीकार करे, और न ही तेजी से प्रविष्ट होते हुए जल से डूबती-उत्तराती नौका को देखकर नाविक को सावधान करे। निष्कर्ष यह है कि शास्त्रकार ने नौकारोहण के सम्बन्ध में साधु को इन 6 सूत्रों द्वारा विशेषतया 4 बातों का विवेक बताया है- (1) नौका में चढ़ने से पूर्व, (2) नौका में चढ़ते समय, (3) नौका में बैठने के बाद और (4) नदी पार करके नौका से उतरने के बाद।' सूत्र 482 द्वारा एक बात स्पष्ट ध्वनित होती है, जिसका संकेत 'एतप्पगारं मणं वा... वियोसेज्ज समाधीए' इन दो पंक्तियों द्वारा शास्त्रकार ने कर दिया है / जिस समय नौका में अत्यधिक पानी बढ़ जाए और वह डूबने लगे, उस समय साधु क्या करे ? वह मन में आर्त्तध्यान का भाव न लाए, न ही शरीर और उपकरणादि के प्रति आसक्ति रखे। एक मात्र आत्मकत्वभाव में लीन होकर शुद्ध आत्मा का स्मरण करता हुआ समाधिभाव में अचल रहे। जल-समाधि लेने का अवसर आए तो शरीरादि का विसर्जन करने में तनिक भी न घबराए। और यदि शुभयोग में नौका डूबती बच जाए, और सुरक्षितरूप से साधु नौका से जलमार्ग पार कर ले तो वह तीर्थकरोक्त विधि का पालन करके फिर आगे बढ़े। 'उस्सिनेज्जा' आदि पदों के अर्थ-उस्सिंचज्जा–नाव में भरे हुए पानी को उलीच कर बाहर निकाले, सण्णं-कीचड़ में फंसी हुई: उप्पोलावेज्जा-बाहर निकाले / उड्ढगामिणी = ऊर्ध्वगामिनी= अनुस्रोतगामिनी, अहेगामिगि अधोगामिनी--प्रतिस्रोतगामिनी, तिरि यगामिणि तिरछी (आडी) गमन करने वाली, नदी के इस पार से उस पार तक जाने वाली। 1. टीका पत्र 378 के आधार पर। 2. आचारांग चूणि, मूल पाठ टिप्पणी पृ० 178 3. आचारांग चूणि , मूल पाठ टिप्पणी पृ० 174 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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