________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 482 185 एगाभोयं भंडगं करेज्जा का भावार्थ है-पात्रों को इकट्ठे बाँध कर उन पर उपधि को अच्छी तरह जमा देता है। इस प्रकार सब उपकरणों को इकट्ठा करले। निशीथर्णि में इस प्रकार उपकरणों को एकत्रित करके बाँधने का कारण बताया है कि "कदाचित कोई द्वेषी या विरोधी नौकारूढ़ साधु को जल में फेंक दे तो वह मगरमच्छ के भय से एकत्रित किए हुए पात्रों पर चढ़ सकता है, पात्र एकत्रित होंगे तो उनको छाती से बांधकर वह तर भी सकता है / नौका विनष्ट हो जाने पर भी साधु एकत्रित किए हुए पात्रादि से पानी पर तैर सकता है।" ‘णो णावातो पुरतो दुरुहेज्जा' आदि पवों की व्याख्या नौका के अग्रभाग में नहीं चढना (बैठना) चाहिए, अग्रभाग में नौका का सिर है, वहां नहीं बैठना चाहिए क्योंकि वह देवता का स्थान माना जाता है, तथा निर्यामकों के द्वारा उपद्रव की भी सम्भावना है, वहाँ बैठने से, एवं नौकारोहियों के आगे बैठने से प्रवृत्ति का झगड़ा बढ़ने की सम्भावना है। नौका के पृष्ठ भाग में भी नहीं बैठना चाहिए, वहाँ तेजी से बहते हुए जल को देखकर गिर पड़ने का भय रहता है। पृष्ठ भाग में निर्यामक तोरण का स्थान माना जाता है। और मध्य में भी बैठने का निषेध है, क्योंकि वहाँ कूपकस्थान माना जाता है। वहां आने-जाने का मार्ग रहता है। बृहत्कल्पसूत्र वृत्ति में बताया गया है कि मध्य में-कूपकस्थान को छोड़कर बैठना 1. (क) बृहकल्प सूत्र वृत्ति पृ० 1468 (ख) एगाभोगो उबही कज्जो, कि कारणं? कयाइ पडिणीएहि उदगे छुन्भेज्ज, तत्थ मगरभया एगा भोगकएसु पादेसु आरुभइ, एगाभोगकएस् वा बुज्झइ, तरतीत्यर्थः। नावाए वा विणहाए एगाओगकते दगं तरतीत्यर्थः ....भायणे य एमाभोंगे बंधित्ता तेसि उरि उवहिं सुनियमित करेइ, भायणमुवहि च एगट्ठा करोतीत्यर्थः।-निशीथ चूणि उद्दे० 12 पृ० 374 (ग) आचारांग चूणि में इसकी व्याख्या यों की गई है-"एगायतं भंडग, तिन्नि हेट्ठामुहे भातरो करेति, उवरि भडंगए पडिग्गहं एग जुयगं करेति -." एकत्रित भंडोपकरण को एकायत कहते हैं। तीन भाजन अधोमुख रस्ते, ऊपर भंडक, उस पर एक पात्र, उसके साथ एकजुट करे। 2. णो णावातो पुरतो"आदि पदों की व्याख्या निशीथचूणि में इस प्रकार की गई है-"ठाणतियं मोत्तूण ठाति तत्थशाबाहे....॥१६॥ देवताट्राणं कूयट्ठाणं निज्जामगट्टाणं / अहवा पुरतो मज्झ पिट्ठओ, पुरओ देवयट्ठाणं, मज्झे सिवट्ठाण, पच्छा तोरणहाणं, एते वज्जिय तत्थ णावाए अणाबाहे ट्ठाणे टायति / उवउत्तो त्ति णमोक्कारपरायणो सागारपच्चक्खाणं य द्वाति ।"-अर्थात् नौकारोहण की विधि बताते हुए कहते हैं कि तीन स्थान छोड़ कर अनाबाध स्थान में बैठना चाहिए। तीन स्थान ये हैं-१. देवता स्थान, 2. कूप स्थान और 3. निर्यामकस्थान / अर्थात् सबसे आगे-सिर पर देवता स्थान हैं, वहाँ नहीं बैठना चाहिए। मध्य में कपकस्थान है, वहाँ आने-जाने का मार्ग रहता है, वहाँ भी न ठहरना चाहिए। और सबसे अन्त में (पीछे) तोरणस्थान है, वहाँ निर्यामक बैठता है। इन तीनों स्थानों को छोड़कर मध्य में किसी स्थान पर-निराबाध रूप से बैठे। उपयुक्त का अर्थ है-नमस्कार मंत्र-परायण होकर सागारी अनशन का प्रत्याख्यान करके बैठना / -निशीथ चणि पृ०७३-७४ तथा उ० 12 प०३७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org