________________ 48 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध कारण हिंसा आदि करता है। कोई पाप से मुक्ति पाने की भावना से (यज्ञ-बलि आदि द्वारा) हिंसा करता है / कोई किसी आशा-अप्राप्त को प्राप्त करने की लालसा से हिंसा-प्रयोग करता है। विवेचन-सूत्र 72, 73 में हिंसा करने वाले मनुष्य को अन्तरंग वृत्तियों व विविध प्रयोजनों का सूक्ष्म विश्लेषण है / अर्थ-लोलुप मनुष्य, रात दिन भीतर-ही-भीतर उत्तप्त रहता है, तृष्णा का दावानल उसे सदा संतप्त एवं प्रज्वलित रखता है। वह अर्थलोभी होकर आलुम्पक-चोर, हत्यारा तथा सहसाकारी--दुस्साहसी/विना विचारे कार्य करने वाला अकस्मात् आक्रमण करने वाला-डाकू आदि बन जाता है। मनुष्य का चोर/डाकू हत्यारा बनने का मूल कारण -तृष्णा की अधिकता ही है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बात वार-बार दुहराई गई है-- अतुठ्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययइ अदत्तं / --32129 सूत्र 73 में हिंसा के अन्य प्रयोजनों की चर्चा है / चूर्णिकार ने विस्तार के साथ बताया है-कि वह निम्न प्रकार के बल (शक्ति) प्राप्त करने के लिए विविध हिंसाएँ करता है / जैसे 1. सरीर-बल-शरीर की शक्ति बढ़ाने के लिए-मद्य-माँस आदि का सेवनकरता है। 2. ज्ञाति-बल-स्वयं अजेय होने के लिए स्वजन सम्बन्धियों को शक्तिमान् बनाता है / स्वजन-वर्ग की शक्ति को भी अपनी शक्ति मानता है।' 3. मित्र-बल-धन-प्राप्ति तथा प्रतिष्ठा-सम्मान आदि मानसिक-तुष्टि के लिए मित्रशक्ति को बढ़ाता है। 4. प्रेत्य-बल, 5. देव-बल-परलोक में सुख पाने के लिए, तथा देवता आदि को प्रसन्न कर उनकी शक्ति पाने के लिए यज्ञ, पशु-बलि, पिंडदान आदि करता है। 6. राज-बल-राजा का सम्मान एवं सहारा पाने के लिए, कूटनीति की चालें चलता है, शत्रु आदि को परास्त करने में सहायक बनता है। 7. चोर-बल-धनप्राप्ति तथा आतंक जमाने के लिए चोर आदि के साथ गठबंधन करता है। 8. अतिथि-बल, 9. कृपण-बल, 10. श्रमण-बल-अतिथि-- मेहमान, भिक्षुक आदि, कृपण - (अनाथ, अपंग, याचक) और श्रमण-आजीवक, शाक्य तथा निर्ग्रन्थ-इनको यश, कीति और धर्म-पुण्य की प्राप्ति के लिए दान देता है। 'सपेहाए'–के स्थान पर तीन प्रयोग मिलते है , सयं पेहाए-स्वयं विचार करके, 1. आचारांग चूणि इसी मूत्र पर 2. प्राचा० शीलांक टीका पत्रांक 104 3. प्राचारांग चूणि "संप्रेक्षया पर्शलोत्रनया एवं संप्रेक्ष्य वा।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org