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________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उदेशक : सूत्र 71-73 ___ जो प्रतिलेखना कर, विषय-कषायों आदि के परिणाम का विचार कर उनकी (विषयों की) आकांक्षा नहीं करता, वह अनगार कहलाता है। विवेचन-जैसे आहार-परित्याग ज्वर की औषधि है, वैसे ही लोभ--परित्याग(संतोष) तृष्णा की औषधि है / पहले पद में कहा है जो विषयों के दलदल से मुक्त हो गया है वह पारगामी है / चूणिकार ने यहाँ प्रश्न उठाया है ते पुण कह पारगामिणो-वे पार कैसे पहुँचते है ? भण्णति-लोभ अलोभेण दुगु छमाणा-लोभ को अलोभ से जोतता हुआ पार पहुँचता है / "विणा वि लोभं' के स्थान पर शीलांक टीका में विणइत्त, लोभ पाठ भी है / चर्णिकार ने विणा वि लोभ पाठ दिया है / दोनों पाठों से यह भाव ध्वनित होता है कि जो लोभ-सहित, दीक्षा लेते हैं वे भी आगे चलकर लोभ का त्यागकर कर्मावरण से मुक्त हो जाते हैं। और जो भरत चक्रवर्ती की तरह लोभ-रहित स्थिति में दीक्षा लेते हैं वे भी कर्म-रहित होकर ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि कर्म का क्षय कर ज्ञाता-द्रष्टा बन जाते हैं। प्रतिलेखना का अर्थ है—सम्यक् प्रकार से देखना / साधक जब अपने प्रात्म-हित का विचार करता है, तब विषयों के कटु-परिणाम उसके सामने आ जाते हैं। तब वह उनसे विरक्त हो जाता है / यह चिन्तन मननपूर्वक जगा वैराग्य स्थायी होता है / सूत्र 70 में बताये गये कुछ साधकों की भांति वह पुनः विषयों की ओर नहीं लौटता / वास्तव में उसे ही 'अनगार' कहा जाता है / अर्थ-लोभी को वृत्ति 72. 'अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकालसमुठ्ठायी संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलु पे सहसक्कारे विणिविट्ठचित्ते एस्थ सत्थे पुणो पुणो।। 73. से आतबले, से णातबले, मित्तबले, से पेच्चबले, से देवबले, से रायबले, से चोरबले, से अतिथिबले, से किवणवले, से समणबले, इच्चेतेहि विरूवरूवेहि कज्जेहिं दंडसमादाणं सपेहाए भया कज्जति, पावमोक्खो त्ति मण्णमाणे अदुवा आसंसाए / 72. (जो विषयों से निवृत्त नहीं होता) वह रात-दिन परितप्त रहता है। काल या अकाल में (धन आदि के लिए) सतत प्रयत्न करता रहता है। विषयों को प्राप्त करने का इच्छुक होकर वह धन का लोभी बनता है / चोर व लुटेरा बन जाता है / उसका चित्त व्याकुल व चंचल बना रहता है। और वह पुनः-पुनः शस्त्र-प्रयोग (हिंसा व संहार) करता रहता है। 73. वह प्रात्म-बल (शरीर-बल,) ज्ञाति-बल, मित्र-बल, प्रेत्य-बल, देव-बल, राज-बल, चोर-बल, अतिथि-बल, कृपण-बल और श्रमण-बल का संग्रह करने के लिए अनेक प्रकार के कार्यों (उपक्रमों) द्वारा दण्ड का प्रयोग करता है। कोई व्यक्ति किसी कामना से (अथवा किसी अपेक्षा से) एवं कोई भय के 1. इससे पूर्व 'इच्चत्थं मढिए लोए वसति पमत्ते' इतना अधिक पाठ चूणि में है। -प्राचा० (मुनि जम्बूधिजयजी) पृष्ठ 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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