________________ आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध इस प्रकार वे मोह में बार-बार निमग्न होते जाते हैं। इस दशा में वे न तो इस तीर (गृहवास) पर पा सकते हैं और न उस पार (श्रमणत्व) जा सकते हैं। विवेचन--संयम मार्ग में गतिशील साधक का चित्त जब तक स्थिर रहता है, तब तक उसमें आनन्द की अनुभूति होती है। संयम में स्व-रूप में रमण करना, आनन्द अनुभव करना रति है। इसके विपरीत चित्त को व्याकुलता, उद्वेगपूर्ण स्थिति-'अरति' है / परति से मुक्त होने वाला क्षणभर में-अर्थात् बहुत ही शीघ्र विषय/तृष्ण्णा /कामनाओं के बन्धन से मुक्त हो जाता है। . सूत्र 70 में अरति-प्राप्त व्याकुलचित्त साधक की दयनीय मनोदशा का चित्रण है। उसके मन में संयम-निष्ठा न होने से जब कभी विषय-सेवन का प्रसंग मिलता है तो वह अपने को रोक नहीं सकता, उनका लुक-छिपकर सेवन कर लेता है / विषय-सेवन के बाद वह बारबार उसी ओर देखने लगता है। उसके अन्तरमन में एक प्रकार की वितृष्णा/प्यास जग जाती है। वह बार-बार विषयों का सेवन करने लगता है, और उसको वितृष्णा बढ़ती हो जाती है / वह लज्जा, परवशता, आदि कारणों से मुनिवेश छोड़ता भी नहीं और विषयासक्ति के वश हुआ विषयों की खोज या आसेवन भी करता है। कायरता व आसक्ति के दलदल में फंसा ऐसा पुरुष (मुनि) वेष में गृहस्थ नहीं होता, और आचरण में मुनि नहीं होता'-वह न इस तीर (गृहस्थ) पर आता है, और न उस पार (मुनिपद) पर पहुँच सकता है / वह दलदल में फंसे प्यासे हाथी की तरह या त्रिशंकु की भाँति बीच में लटकता हुआ अपना जीवन बर्वाद कर देता है / इस प्रसंग में ज्ञातासूत्रगत पुण्डरीक-कंडरीक का प्रसिद्ध उदाहरण दर्शनीय एवं मननीय है। लोम पर अलोभ से विजय - 71. विमुक्का हु ते जणा जे जणा पारगामिणो, लोभमलोभेण दुगुछमाणे लढे कामे णाभिगाहति / विणा वि लोभं निक्खम्म एस अकम्मे जाणति पासति / पडिलेहाए णावकंखति, एस अणगारे त्ति पवृच्चति / 71. जो विषयों के दलदल से पारगामी होते हैं, वे वास्तव में विमुक्त हैं। प्रलोभ (संतोष) से लोभ को पराजित करता हुआ साधक काम-भोग प्राप्त होने पर भी उनका सेवन नहीं करता (लोभ-विजय ही पार पहुँचने का मार्ग है।) जो लोभ से निवृत्त होकर प्रव्रज्या लेता है, वह अकर्म होकर (कर्मावरण स मुक्त होकर) सब कुछ जानता है, देखता है / 1. उभयभ्रष्टो न गृहस्थो नापि प्रजितः / -आचा• टीका पत्रांक 103 2. "कोयि पुण विणा वि लोभेण निक्खमइ जहा भरहो राया" चूणि "विणा वि सोहं इत्यादि" शीलांक . टीका पत्र 103 3. ज्ञातासूत्र 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org