________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 67-70 45 जब तक शरीर स्वस्थ एवं इन्द्रिय-बल परिपूर्ण है, तब तक साधक आत्मार्थ अथवा मोक्षार्थ का सम्यक् अनुशीलन करता रहे। 'क्षण' शब्द सामान्यतः सबसे अल्प, लोचन-निमेषमात्र काल के अर्थ में आता है। किन्तु अध्यात्मशास्त्र में 'क्षण' जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अवसर है। प्राचारांग के अतिरिक्त सूत्रकृतांग आदि में भी 'क्षण' का इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है / जैसे-- इनमेव खणं वियाणिया-सूत्रकृत् 112 / 3 / 19 इसी क्षण को (सबसे महत्पूर्ण) समझो। टीकाकार ने 'क्षण' को अनेक दृष्टियों से व्याख्या की है / जैसे कालरूप क्षण-समय / भावरूप क्षण-अवसर / अन्य नय से भी क्षण के चार अर्थ किये हैं, जैसे-(१) द्रव्य क्षणमनुष्य जन्म / (2) क्षेत्र क्षण-आर्य क्षेत्र / (3) काल क्षण---धर्माचरण का समय / (4) भाव क्षण-उपशम, क्षयोपशम ग्रादि उत्तम भावों की प्राप्ति / इस उत्तम अवसर का लाभ उठाने के लिए साधक को तत्पर रहना चाहिए।' // प्रथम उद्देशक समाप्त / बीओ उद्देसमो द्वितीय उद्देशक अरति एवं लोभ का त्याग 69. अरति आउट्ट से मेधावी खणंसि मुक्के / ' 70. अणाणाए पुट्ठा वि एगे णियटेंति मंदा मोहेण पाउडा। 'अपरिग्गहा भविस्सामो' समुट्ठाए लद्धे कामे अभिगाहति / अणाणाए मुणिको पडिलेहेंति / एत्थ मोहे पुणो पुणो सण्णा णो हवाए णो पाराए। 69. जो अति से निवृत्त होता है, वह बुद्धिमान् है / वह बुद्धिमान् विषयतृष्णा से क्षणभर में ही मुक्त हो जाता है। 70. अनाज्ञा में--(वीतराग विहित-विधि के विपरीत) आचरण करने वाले कोई-कोई संयम-जीवन में परीषह आने पर वापस गृहवासी भी बन जाते हैं। वे मंद बुद्धि--अज्ञानी मोह से प्रावृत रहते हैं। __कुछ व्यक्ति- 'हम अपरिग्रही होंगे-ऐसा संकल्प करके संयम धारण करते हैं, किन्तु जब काम-सेवन (इन्द्रिय विषयों के सेवन) का प्रसंग उपस्थित होता है, तो उसमें फँस जाते हैं। वे मुनि वीतराग-प्राज्ञा से बाहर (विषयों की ओर) देखने/ ताकने लगते हैं। 1. प्राचा० शीलांक टीका पत्रांक 9941.. 2. 'मुत्ते'--पाठान्तर है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org